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Writer's pictureRajeev Sharma

आध्यात्म की अनंत यात्रा

Updated: Sep 2, 2023

Good company in a journey makes the way seem shorter. — Izaak Walton

ऊपर लिखी ये उक्ति इस संदर्भ में बहुत ही सटीक है कि जब भी हम किसी यात्रा पर निकलते हैं तो एक अच्छे साथी का साथ उस यात्रा को बहुत आसान कर देता है । समय कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता ।


पर जब यात्रा अंदर की हो । अपने ही स्वयं के अंदर उतरने की यात्रा हो, तब....!

तब भी इसका जवाब यही होगा कि काश एक अच्छा साथी मिल जाए तो उस रास्ते से परिचित हो । फिर तो, यात्रा भी आसान हो जाएगी और यात्रा का आनंद भी आयेगा ।

पर साथी कौन हो? और उससे भी महत्वपूर्ण सवाल ये है कि, हमने तो इससे पहले अंतर्यात्रा के बारे में कभी सुना भी नहीं है, तो इस पर जाने की जरुरत भी क्या है?


कोई जरूरत नहीं है! और न कोई आपसे कहने आयेगा कि चलो भाई, अब समय हो गया है, अब अंतर्यात्रा शुरु करते हैं । याद कर लीजिए, जीवन के जितने भी वर्ष आपने गुजार दिये, चाहे जितनी भी आपने पढ़ाई कर ली हो, नौकरी कर ली हो, शादी करके बच्चों के लालन- पालन में ही जीवन के स्वर्णिम वर्ष गुजार दिये हों और चाहे फिर वो मृत्यु शय्या पर ही क्यों न पहुंच गये हों....आज तक कोई नहीं मिला होगा जिसने आपसे ये सवाल पूछा हो - क्यों भैया, अंतर्यात्रा पर चलना है?

चलो, मान लिया कि अंतर्यात्रा पर चलना भी चाहिए पर ये अंतर्यात्रा है क्या बला...?


तो इस सवाल के जवाब में जाने के लिये आपको एक बात पर विश्वास करना पड़ेगा । जिसके बिना, अगले विचार तक जाने में आप सहज महसूस नहीं करेंगे । विश्वास इस बात पर करना पड़ेगा कि, इस सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है । अब आप इसे ईश्वर कहें, खुदा कहें, वाहे गुरु कहें, वह आप पर निर्भर करता है । पर आपको इस बात पर विश्वास करना ही पड़ेगा कि हम भी इसी सृष्टि का एक हिस्सा हैं । और हमारे अंदर जो भी चेतना है वह, उस परम पिता परमेश्वर की दी हुयी है । जिसे हम आत्मा भी कहते हैं ।


तो कायदे से हम उस परमात्मा का ही अंश हैं ।


ईश्वर ने ये रचना क्यों की, गुरुओं ने इस पर स्पष्ट प्रकाश डाला है पर वो चर्चा फिर कभी और । यहां तो आज हम अंतर्यात्रा पर चर्चा कर रहे हैं । मूल सवाल तो अब भी कायम है कि अंतर्यात्रा क्या है और क्यों की जानी चाहिए?

जब ईश्वर ने इस सृष्टि के रचनाकारों की रचना की तो इन रचनाकारों में, ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की और उसमें भी सर्वश्रेष्ठ कृति यानी मनुष्य की भी रचना की । महादेव ने अक्षरों का ज्ञान दिया, संगीत की रचना की, 96 करोड़ मंत्रों की रचना की । और भगवान विष्णु, भगवती महालक्ष्मी की मदद से इस सृष्टि के लालन - पालन में जुट गये ।


इतना सब कुछ तो हो गया पर मनुष्य इस सृष्टि के मायाजाल में उलझ गया । उसने सोचा कि जो वह देख रहा है वही सब सच है । पर सत्य तो यह है कि ये सब तो महामाया की माया है । ये सब तो क्षण भंगुर है और नष्ट होने वाला है । तो, जो नष्ट हो सकता है, वो सच कैसे हो सकता है ।


और सत्य सिर्फ इतना सा है कि सत्य कभी नष्ट नहीं होता है

और इसी सत्य की खोज में बड़े - बड़े ऋषि मुनिओं ने अपना जीवन खपा दिया । और यहीं से वेद, पुराण, श्रुतियां और, उपनिषद इत्यादि सामने आये । इन सबके माध्यम से ही समाज में ज्ञान की गंगा बह सकी । और मूल तथ्य तो ये हैं कि उन साधना पद्धतियों का विकास हो सका, उन ध्यान की विधाओं का विकास हो सका जिससे हम अपने अंदर की यात्रा प्रारंभ कर सकें और उस ईश्वर को जानने का प्रयास कर सकें ।


ईश्वर को जानना कठिन नहीं है क्योंकि हम तो स्वयं ही उसके अंश है । और वो परमात्मा तो हमारे ही अंदर जाकर बैठ गया है । बाहर की यात्रा से उसको जाना नहीं जा सकता । उसके लिए तो अंदर उतरना ही पड़ेगा । साधना, ध्यान, जप, तप इत्यादि कई माध्यम हो सकते हैं उसके पर, यात्रा तो अंदर उतरकर ही शुरु होगी ।


ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ साधना या ध्यान करके ही उस ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है । ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब लोगों ने इस समाज के बीच रहकर निःस्वार्थ सेवा करके भी ईश्वर की प्राप्ति की है ।


तरीका कोई भी हो सकता है, पर यात्रा अंदर की ही होगी ।


अब दूसरा सवाल, कि साथी कौन हो इस यात्रा में?


"तो उस परमात्मा से बेहतर कोई दूसरा साथी हो सकता है भला....!!!"


अब आप कहेंगे कि जिसकी खोज में जा रहे हैं, वही साथी कैसे हो सकता है । तो इसको इस बात से समझिये कि इस सृष्टि में जो कुछ भी है वो सब उस ईश्वर के ही रुप हैं । कुछ भी ऐसा नहीं है जो उससे अलग हो ।

पर इस स्थिति तक पहुंचने में समय लगता है जहां पर हमें कुछ भी उस परमात्मा से भिन्न नहीं लगता । अब जब तक उस स्थिति तक पहुंचेंगे, तब तक तो शायद ये पूरा जीवन ही निकल जायेगा । तो फिर वो साथी कौन हो, जिसके सानिध्य में न सिर्फ ये यात्रा शुरु हो, पूरी हो बल्कि आनंद भी आये ।


वह साथी हो सकता है केवल, गुरु के स्वरूप में । दरअसल, ईश्वर का कोई साकार स्वरूप हो सकता है तो उसका सर्वश्रेष्ठ स्वरूप गुरु का ही होता है ।


याद कीजिए, जब हम छोटे होते हैं तो मां हमारी पहली गुरु होती है जो हमको चलना - फिरना सिखाती है, बाद में चाचा, मामा, ताऊ, ताई, इत्यादि लोग हमें एक - एक छोटी - छोटी चीजें सिखाते हैं । तब गुरु हमारे जीवन में कभी चाचा बनकर आते हैं, कभी पापा बनकर, कभी ताऊ बनकर । फिर स्कूल में, उसके बाद कॉलेज में । ये क्रम कभी रुकता नहीं है ।


पर ये सब हमारे कार्मिक गुरु होते हैं, ये हमारे आध्यात्मिक गुरु नहीं होते । आध्यात्मिक गुरु तो वह होता है तो हमारे जन्मों - जन्मों का साक्षी होता है और जिसमें ये क्षमता होती है कि वह हमारा हाथ पकड़कर इस माया रुपी संसार से बाहर खींच ले । और, हमारी अंतर्यात्रा को पूर्णता दे और उस ईश्वर के साथ हमारा साक्षात्कार करवाये ।


और, ईश्वर कहीं और नहीं है । वो तो हमारे अंदर ही बैठा है । तो गुरु की ड्यूटी होती है कि वह जन्म - जन्मांतरों के कर्मों की जो धूल हमारी आत्मा पर पड़ी होती है, उसे साफ करे और हमें आत्म साक्षात्कार करने में मदद करे । अब इसके लिए वह क्या रास्ता अपनायेंगे, साधना करवायेंगे, या मंत्र जप करवायेंगे या हठ योग करवायेंगे या निःस्वार्थ समाज सेवा करवायेंगे, ये तो वही जानें ।

 

प्रश्नः वो तो ठीक है भैया, पर हम लोग तो ड्यूटी वाले हैं, व्यवसाय से फुर्सत नहीं मिलती, घर-द्वार के काम से फुर्सत मिले तब तो अंतर्यात्रा करें । अगर हम अंतर्यात्रा करेंगे तो हमारे बच्चों का ध्यान क्या तुम रखोगे....??? बताओ ।


उत्तरः इसके संदर्भ में किसी संत ने बहुत प्यारी बात कही है ।

जिंदगी इक किराये का घर है एक न एक दिन बदलना पड़ेगा


ये जिंदगी सच में एक किराये का ही घर है । और इस घर का मालिक तो वही परमात्मा है । पता नहीं, कब निकाल कर बाहर कर दे । फिर क्या करोगे? अगर परिवार का ध्यान रखना जरुरी है तो उतना ही जरुरी उस परमात्मा की प्राप्ति का प्रयास करना भी है ।


प्रश्नः चलो मान लिया कि जिंदगी किराये का घर है । पर भैया, हम कोई साधु, सन्यासी तो हैं नहीं कि 2 - 2 घंटे बैठकर, कमर सीधी करके साधना करें या जप - तप करें । हमसे तो इतना सब नहीं हो सकता ।


उत्तरः कौन कहता है कि साधना करने के लिए 2 -2 घंटे बैठने की आवश्यकता है? जो ये सब कहते हैं, उन्होंने उस परमात्मा को जाना ही नहीं । मान लीजिए कि कोई किसान है, जो अपनी खेती - बाड़ी में ही लगा रहता है । पूरे 24 घंटों में मात्र उसे 5 सेकण्ड का समय मिलता है जब वो केवल एक ही शब्द बोलकर उस परमात्मा को याद कर पाता है 'नारायण', तो क्या उसे अपने जीवन में पूर्णता का अधिकार नहीं है? संतजन कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति अपने व्यस्त समय में से कुछ क्षण भी परमात्मा का नाम ले पाता है, तब भी वह पूर्णता का अधिकारी है । लेकिन शर्त यही है कि ये कुछ क्षण मात्र भी उस परमात्मा को समर्पित होने चाहिए । अगर इसमें भी घाल - मेल करोगे, तो नहीं चलेगा ।


लेकिन अगर आपके पास कुछ समय है और उस समय का सदुपयोग न करके आप उसे व्यर्थ के कामों में गुजार दें तब ये एक भूल के समान होता है । क्योंकि समय सिर्फ एक ही बार आता है, अगर उस समय से चूक गये तो फिर उसकी भरपायी नहीं की जा सकती ।


प्रश्नः अगर ऐसी ही बात है तो हमें आध्यात्मिक जगत में प्रवेश मिले तो कैसे मिले? क्या करना चाहिए हमें?


उत्तरः आध्यात्मिक जगत में प्रवेश के लिए आपको मात्र गणपति जी का स्मरण करना चाहिए । उनके 12 नामों से भी आप अगर स्तुति करें तो भी इतने मात्र से ही आपको आध्यात्मिक जगत में प्रवेश मिल जायेगा । लेकिन सिर्फ प्रवेश से काम नहीं चलेगा, आध्यात्मिक जगत के अधिष्ठाता गुरु होते हैं । अगर इस क्रम में आप सिर्फ गुरु पूजन करना शुरु कर दें तो आध्यात्मिक जगत में उन्नति प्राप्त करने से आपको कोई नहीं रोक सकता ।


प्रश्नः तो गणपति पूजन और गुरु पूजन की विधि क्या है?


उत्तरः विधि संक्षिप्त भी होती है, शास्त्रोक्त भी और, मानसिक भी । किसी भी विधि से करें, पूजन हो जाएगा । ब्लॉग पर पहले ही गुरु पूजन की संक्षिप्त विधि पोस्ट की जा चुकी है । यहां मात्र लिंक दी गयी है ।

 

तो अगर अंतर्यात्रा करनी है तो सबसे पहला काम होना चाहिए कि हम अपने गुरु को ढूंढें । पर सत्य ये भी है कि हम स्वयं अपना गुरु नहीं ढूंढ सकते । गुरु ही हमें ढूंढते हैं । पर हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम उस गुरु का अपने जीवन में आवाहन करें । उस परमात्मा से प्रार्थना करें कि अब तो उस गुरु से मिला दे । जब भी समय मिले, "अपने गुरु को याद करें कि आप जिस भी जीवन से साथ हैं, हैं तो मेरे गुरु ही । मैं मूर्ख, अज्ञानी, माया के इस जाल में फंसा ही रहा हूं । आप कृपया करके फिर से मेरा हाथ पकड़ें, मुझे सत्य का ज्ञान करायें"।


आप याद तो करिये अपने गुरु को, उनका आवाहन तो कीजिए । गुरु तो मां के समान हैं । एक शिशु की भांति उस परमात्मा से प्रार्थना कीजिए कि मुझे मेरे गुरु से मिला दे । तो ये भी जान लीजिए कि आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक शिशु रोता हुआ जब भी अपनी मां को पुकारता है तो मां अपने उस शिशु को दौड़ते हुए अपनी गोदी में न उठी लेती हो ।


बस, देर है तो शिशु बनने की, सहज बनने की । जब तक बड़े बने रहेंगे तब तक न तो शिशु बनने की क्रिया शुरु हो पाएगी और न ही हम सहज ही रह पायेंगे और, सीधा असर होगा ये कि इस जीवन में भी गुरु से दूर ही रहेंगे । जिस दिन शिशु बनकर उस गुरु को पुकारेंगे, ऐसा हो ही नहीं सकता कि, गुरु आपके जीवन में न आयें ।


आप सबको अपने - अपने गुरु मिलें और उससे भी बढ़कर सद्गुरु मिलें जो आपको आपकी अंतर्यात्रा पर गतिशील कर सकें और उस यात्रा को पूर्णता दे सकें ।

ऐसी ही शुभेच्छा के साथ ।


अस्तु ।

 

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