स्थूल जगत और कर्म फल
एक बार भगवान विष्णु अपनी योग निद्रा में थे । अचानक उनको ऐसा लगा जैसे कि उनका कोई भक्त कष्ट में है । भगवान स्वयं अपना रथ लेकर उस स्थान पर पहुंचे जहां पर वह भक्त भगवान को याद कर रहा था । वह भक्त था एक धोबी, जो अपने कपड़ों की भारी भरकम पोटली को अपने सिर पर लादकर जा रहा था । धोबी चलता जा रहा था लेकिन भगवान का भजन भी करता जा रहा है । अपने कष्ट से बेपरवाह धोबी को भगवान का भजन करने में भी बड़ा आनंद आ रहा था । भगवान से उसका कष्ट देखा नहीं गया तो उन्होंने धोबी को रोककर कहा कि तुम रथ पर आ जाओ तो मैं तुमको गंतव्य तक पहुंचा दुंगा । धोबी ने जैसे ही भगवान को देखा, भगवान को साष्टांग प्रणाम किया और रथ पर चढ़ गया । लेकिन भगवान भी आश्चर्य में थे, धोबी ने अभी भी पोटली अपने सिर पर ही लाद रखी थी । भगवान ने समझाया कि तुम चाहो तो इस पोटली को रथ में ही रख सकते हो । लेकिन धोबी ने कहा कि भगवान, मैं नीची जाति का जरुर हूं लेकिन इतना भी नीच नहीं कि अपना भार आपके रथ पर रख दूं ।
अब ऐसे व्यक्ति को तो भगवान भी नहीं समझा सकते । जब रथ जा ही रहा है तो इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि पोटली आपके ऊपर रखी है या रथ के ऊपर, भगवान को तो उसका भार उठाकर ले ही जाना है ।
भगवान से उसको नाना प्रकार से समझाने की कोशिश की लेकिन अंततः भगवान ही भक्त से हारते हैं ।
कहानी सच्ची है या झूठी, वो तो भगवान ही जानें लेकिन, इसका सांकेतिक महत्व बहुत है । क्या हम सबके जीवन में ऐसा नहीं होता है? हम सब अपनी तृष्णा, इच्छायें, आकांक्षायें, वासनायें, क्रोध, लोभ, अहंकार, दुःख, निराशा, अवसाद इत्यादि की गठरी बनाकर अपने सिर पर रखकर ही तो चलते हैं । और, इसी गठरी के बोझ तले ही एक दिन हमारा राम नाम सत्य भी हो जाता है । चार लोग आते हैं और हमें हमारी गठरी समेत श्मशान में फूंक आते हैं ।
हम तो फिर भी जल जाते हैं पर शायद हमारे कर्मों की गठरी अगले जन्म में हमारा फिर से इंतजार करती हुयी मिलती है और ये चक्र अनंत काल से चला आ रहा है ।
फिर जब कभी हमारे पुण्य कर्म फलित होते हैं तब सदगुरु जीवन में आते हैं । वह भी भगवान की तरह हमसे कहते हैं कि इस गठरी को अब तू मेरे हवाले कर दे और शांति से इस जीवन यात्रा को पूरा कर ...
सच - सच बताना, कितने लोग अपनी गठरी को गुरु के हवाले करने को भी तैयार हो पाते हैं? और कितने लोग सच में अपनी गठरी को गुरु के हवाले करके निश्चिंत होकर जीवन यात्रा कर पाते हैं 🧐
मुझसे न कहो, पर अपने दिल में तो सब जानते ही हैं 😇
साधना में सफलता न मिलने का कारण
एक तो यही है जो ऊपर बताया है । बोझों से छुटकारा मिले तब तो ठीक से साधना हो । अब बोझ कम होने का नाम ही नहीं लेते हैं तो साधना कहां से सफल होगी । वैसे, हम भी तो पक्के वाले ठहरे, बोझों की गठरी को सिर पर लादकर घूमने को तैयार रहते हैं, उसके वजन से गर्दन भी टेड़ी हो जाती है लेकिन मजाल है कि इतना कुछ हो जाने पर भी अपनी गठरी को गुरुजी को समर्पित करके छुट्टी पा लें ।
सदगुरुदेव के सामने समर्पण करना तो बहुत बड़ा बोझ लगता है हमें .... 😁 । आत्मसम्मान की ओट में छिपा हमारा अहंकार और एक साधक होने का गर्व हमसे बहुत कुछ करा जाता है । कुछ अगर नहीं हो पाता है तो वह है समर्पण .... ।
हम भी गुरुजी से यही तो कहने हैं न ... कि गुरुजी सब कुछ करवा लो ... बस समर्पण न करवाना 🤣
अब गुरुजी भी परेशान, साधक अपनी गठरी भी उतारना नहीं चाहता है और जीवन में पूर्णता भी पाना चाहता है, दो अलग - अलग चीजें एक साथ....... कैसे दे दें ।
दूसरा और महत्वपूर्ण कारण है - खाते (कर्म बंधन) की पूर्ति का न हो पाना ।
इस बात को कुछ ऐसे समझिये -
मान लो आपने बैंक से कुछ रकम लोन पर ले रखी है । बैंक आपको लोन दे देता है और आपसे निर्धारित अवधि पर निर्धारित ब्याज और मूलधन की कुछ रकम लेता है । अगर आप समय पर ब्याज भरते रहें और मूलधन चुकाते रहें तब तक बैंक आपकी बहुत खातिर करता है और कोई भी दबाब आपके ऊपर नहीं बनाया जाता है । लेकिन किसी वजह से अगर आप ब्याज भरने में चूक गये हैं तो बैंक आपको सूचित कर देता है । पर किसी कारणवश आप लगातार कई बार ब्याज भर पाने में नाकाम रहते हैं तब बैंक भी अपनी लोन की रकम वापसी के लिए प्रयास शुरु कर देता है ।
अगर आप कमजोर हुये तो बैंक वाले मात्र फोन करके भी आपके ऊपर दबाब बना सकते हैं, आपकी संपत्ति की नीलामी करवा सकते हैं और येन - केन प्रकारेण अपनी दी हुयी रकम की वापसी कर सकते हैं । लेकिन आपके मजबूत होने की स्थिति में बैंक वाले भी अपने बाउंसर 👺 भेजकर आपस हिसाब वसूल सकते हैं । पर अगर आप इतने मजबूत हुये कि आप बैंक के भेजे हुये बाउंसर्स को भी ड़रा सकें तो फिर कम से कम कुछ समय के लिए तो आपको राहत मिल ही सकती है ।
पर इसका मतलब ये नहीं है कि आपका पिंड़ छूट गया । आपके ऊपर जो कर्ज है वह बिना चुकाये आपको छुट्टी नहीं मिल सकती । कुछ लोग तो देश छोड़कर ही भाग जाते हैं लेकिन देख लीजिए, आजकल की सरकार तो विदेशों से भी ऐसे लोगों का प्रत्यर्पण करा लेती है 💪
मतलब सीधा सा है, अगर कर्जा लिया है तो चुकाना ही पड़ेगा । यही इस दुनिया का नियम है । अगर कर्ज नहीं चुकायेंगे तो शांति भी नहीं मिल सकेगी ।
यही कर्मों का भी सिद्धांत है ।
हम लोग भूल जाते हैं कि जीवन की श्रंखला तो एक अनंत श्रंखला है । न जाने कितने जन्म लिए हैं और न जाने और कितने जन्म लेंगे । हालांकि कुछ पढ़े लिखे लोग मात्र एक जन्म में ही यकीन रखते हैं । उनको यकीन रखने दीजिए । यकीन करने या न करने से सच न तो बदलता है और न ही कर्म का सिद्धांत ।
जब अच्छे कर्म करते हैं तो यही पुण्य बनकर जीवन में हमको वैभव प्रदान करते हैं और जब कर्म दूषित हो जाते हैं तो यही हमारे पराभव का भी कारण बनते हैं । ये सब तब तक चलता रहता है जब तक हमारे खातों की पूर्ति नहीं हो जाती है ।
अभी कुछ दिन पहले किसी ग्रुप में चर्चा करते हुये देखा कि क्या किसी बीमारी का उच्चाटन किया जा सकता है? किसी का उत्तर भी आया कि बिलकुल उच्चाटन हो सकता है, 100 प्रतिशत हो सकता है । आगे तो मैंने ध्यान नहीं दिया, हो सकता है कि किसी ने उनको बीमारी का उच्चाटन करने का तरीका भी बता दिया हो 🤠
अगर आप उच्चाटन का मतलब नहीं समझते हैं तो इसे बैंक के बाउंसर के उदाहरण से समझिये । समझिये कि बैंक ने अपना कर्जा वसूलने के लिए अपने आदमी भेजे और आपने येन - केन प्रकारेण उनको वहां से भगा दिया । भगा तो दिया पर कर्जा खत्म नहीं हुआ । तो, अब जब भी बैंक वालों को मौका मिलेगा, वे फिर से आ धमकेंगे ।
यही सब कुछ बीमारी, शत्रु, रोग, अपयश, चिंता इत्यादि विषयों में भी होता है । आप इनको भगाते रहिये, ये वापस आते रहेंगे । मतलब ये कि जीवन में शांति नहीं मिल सकती ।
तो फिर करें क्या?
करना क्या है....! अपने खातों की पूर्ति कीजिए ...। और इसका सबसे आसान तरीका ये है कि आप जो भी साधना करें, उस समय किसी भी प्रकार की इच्छा मन में न रखिये और जो भी जप, तप या यज्ञ आपने किया है, वह सदगुरुदेव को ही समर्पित कर दें । सदगुरुदेव जानते हैं कि इस साधना के फल का सबसे बेहतर उपयोग कहां और किस प्रकार हो सकता है । और, केवल सदगुरुदेव ही हैं जो आपको कर्म फल की पूर्ति करवाकर उससे मुक्ति दिला सकते हैं ।
अब आप सोच रहे होंगे कि साधना तो चलो बिना किसी इच्छा को मन में रखे की जा सकती है लेकिन क्या संकल्प भी न लें?
इसके लिए मेरा उत्तर तो यही रहेगा -
सदगुरुदेव ही हमारे पिता हैं, वही हमारी माता हैं । उनको हमारी प्रत्येक आवश्यकता का ध्यान हमसे भी ज्यादा है । संकल्प लेकर हम उनको अपनी इच्छा से बांधने का ही प्रयत्न करते हैं । फिर उनको न चाहकर भी वह चीज देनी पड़ती है जिससे कई गुना बेहतर चीज वह आपको दे सकते थे । मेरी राय में संकल्प लेना उचित नहीं है, अलबत्ता साधना शुरु करने से पहले सदगुरुदेव से प्रार्थना अवश्य कर सकते हैं । पर संकल्प... वह तो बहुत ही बड़ी चीज है । संकल्प लेने से पहले 1000 बार सोचना चाहिए कि जो मांगने जा रहा हूं क्या वह सचमुच संकल्प लेने के दायरे में आता भी है या सिर्फ लॉलीपॉप जैसी चीज के लिए भी हम सदगुरुदेव के सामने संकल्प कर रहे हैं ।
थोड़ा विचार करके देखिये कि अगर आपका 2 साल का बच्चा अपनी पॉकेट मनी के 2 रुपये लाकर आपको कहता है कि ये लो पापा 2 रुपये, मुझे लॉलीपॉप लेनी है तो आपको कैसा लगेगा? खराब न...
जरा सदगुरुदेव की तरफ देखिए और बताइये कि क्या उनके सामने हम लोग 2 साल के बच्चे के समान नहीं हैं? हमारी क्या औकात है कि हम उनके सामने बैठकर साधना भी कर सकें... हम तो उनके वो अबोध शिशु हैं जो अभी ठीक से बोल भी नहीं पाता है...
कुछ करना है तो बस उनसे अपने मन की बात करना सीखिये, और लग जाइये अपनी साधना में ..
बाकी तो वह स्वयं ही देख लेंगे ।
रोग निवारण प्रयोग
ये एक ऐसा विषय है जिस पर तमाम साधक हमेशा से प्रश्न पूछते आये हैं । कभी जीवन में सामान्य रोग होते हैं तो डॉक्टर के पास जाकर दवाई लेने से रोग ठीक हो जाता है । पर कभी - कभी ऐसा होता है कि रोग हमारे जीवन में पैर पसार कर बैठ जाता है, जाने का नाम ही नहीं लेता । तमाम डॉक्टरों को दिखा लिया, वैद्य, नीम - हकीम इत्यादि से इलाज करा लेते हैं फिर भी रोग जीवन से जाने का नाम नहीं लेता है ।
पूर्व में महाशांति साधना विधान का मूल प्रयोग पोस्ट किया गया था जिसके प्रयोग से साधक को शांति अवस्था प्राप्त होती है, साधक के सभी मानसिक रोग, तनाव, अवसाद, निराशा, खिन्नता आदि से मुक्ति मिलती ही है । अगर आपने मूल प्रयोग को अभी तक संपन्न नहीं किया है तो कर लीजिए । इस एक प्रयोग के माध्यम से ही जीवन में इतना कुछ प्राप्त हो जाता है जिसकी तुलना किसी भी अन्य साधना से करना संभव नहीं है ।
इसी श्रंखला में अगला प्रयोग है आरोग्य सिद्धि प्रयोग । लेकिन इस प्रयोग को तभी करना चाहिए जब आप मूल प्रयोग संपन्न कर चुके हों ।
यह साधना प्रयोग किसी भी व्यक्ति के जीवन में महाशांति की प्राप्ति करवाने के लिए समर्थ है । यह प्रयोग भगवान मृत्युंजय से संबंधित है । शांति कर्म में भगवान मृत्युंजय का विशेष ही महत्व है क्योंकि अशांति मृत्यु का ही द्योतक है तथा मृत्यु की गति को तीव्रता देती है । ऐसी स्थिति में मनुष्य को आंतरिक एवं वाह्य रुप से पूर्ण शांति की प्राप्ति करने के लिए भगवान मृत्युंजय की शरण तांत्रिक सिद्धों के मध्य प्रचलित रही है ।
यह प्रयोग तीन यंत्रों की सहायता से किया जाता है –
मृत्युंजय यंत्र,
अनिष्ट निवारण यंत्र
षटकर्म सिद्धिदात्री महायंत्र
चूंकि तंत्र कर्म सिद्धि मंड़ल बहुत ही कम संख्या में बनाये गये थे, इसलिए इस साधना के लिए सहज ही उपलब्ध नहीं हो सकते । इसका दूसरा तरीका यह है कि महामृत्युंजय यंत्र आप गुरुधाम से मंगा लें, ऐसा इसलिए कि इस यंत्र को भोजपत्र पर बनाना सहज नहीं है । अनिष्ट निवारण यंत्र और षटकर्म सिद्धिदात्री महायंत्र को भोजपत्र पर बनाना अपेक्षाकृत आसान है, तो आप उनको अष्टगंध की स्याही से, अनार की कलम से भोजपत्र पर बना लीजिए । यंत्रों की प्राण प्रतिष्ठा का विधान ब्लॉग पर पहले से ही उपलब्ध है तो इन यंत्रों को आप घर पर ही प्राण प्रतिष्ठित कर सकेंगे । इस प्रकार साधना के सभी उपकरण आप स्वयं ही तैयार कर सकते हैं ।
(सर्व अनिष्ट निवारण यंत्र)
(षटकर्म सिद्धिदात्री महायंत्र)
महाशांति साधना प्रयोग तांत्रिक शैव सम्प्रदाय से संबंध रखता है । प्राचीन समय में कश्मीरी शैव सिद्धों के मध्य यह प्रयोग प्रचलन में रहा था लेकिन धीरे – धीरे यह प्रयोग कुछ ही सिद्धों के मध्य ज्ञात रहा । वस्तुतः कश्मीरी शैव सिद्धांत तंत्र क्षेत्र का एक ऐसा मत था जिसकी प्रक्रियाएं अति गोपनीय रहती थीं क्योंकि ये शैव सिद्ध जनमानस से अति दूर, अपने आत्मचिंतन एवं शिवत्व प्राप्ति में ही हमेशा लीन रहते थे । इसलिए इस मार्ग से संबंधित तांत्रिक साधना जनसामान्य के मध्य प्रकट नहीं हुयी । प्रस्तुत प्रयोग भी इसी मार्ग का एक विशेष गोपनीय प्रयोग है जो कि गुप्तता का मर्यादा में ही रहा है । यह प्रयोग कई दृष्टि से विशेषताओं को अपने अंदर समाहित किये हुये है तथा साधक को निम्न लाभों की प्राप्ति करवाता है-
साधक को शांति अवस्था की प्राप्ति होती है ।
साधक के सभी मानसिक रोग, अवसाद, निराशा, खिन्नता आदि से मुक्ति मिलती है ।
साधक एक स्वस्थ चिंतन को प्राप्त होता है तथा अपने जीवन में खुशियों को स्थान देता है । मानसिक रुप से तुष्ट बनता है ।
जीवन में दुर्भाग्यकारक दोष की निवृति होती है, किसी भी ग्रह की विपरीत दृष्टि एवं दुष्प्रभाव का निराकरण होता है ।
साधक जीवन में आने वाली बाधा तथा कष्टों का पूर्व ही आभास साधक को होने लगता है तथा उससे संबंधित निराकरण की प्राप्ति भी साधक को प्राप्त होने लगती है ।
यह मृत्युंजय विधान है अतः इस प्रयोग को करने से साधक को अकालमृत्यु आदि का भय व्याप्त नहीं होता ।
साधक को शत्रुबाधा में रक्षण की प्राप्ति होती है तथा साधक शत्रु षड़यंत्रों से मुक्ति को प्राप्त करता है ।
इस प्रकार साधक को यह एक ही प्रयोग के माध्यम से कई प्रकार के लाभों की प्राप्ति होती है ।
साधना विधि
साधक यह शांति कर्म के नियमोक्त शुभदिन या सोमवार को करे । यह विधान रात्रिकालीन है अतः साधक रात्रि के 10 बजे के बाद ही इस प्रयोग को संपन्न करे । साधक स्नान करे तथा सफेद वस्त्र धारण करे एवं सफेद आसन पर बैठ जाये । साधक का मुख उत्तर दिशा की ओर रहे ।
सर्व प्रथम गुरु पूजन संपन्न करें तथा गुरु मंत्र का जप कर गुरु आशीर्वाद को प्राप्त करें ।
इसके बाद साधक तंत्र कर्म सिद्धि मंडल को अपने सामने स्थापित करे । साधक को मृत्युंजय यंत्र का पूजन करना है और मंत्र की ध्वनि (Aing Zoom Sah) होगी –
ॐ ऐं जूं सः गन्धं समर्पयामि ।
ॐ ऐं जूं सः पुष्पं समर्पयामि ।
ॐ ऐं जूं सः धूपं समर्पयामि ।
ॐ ऐं जूं सः दीपं समर्पयामि ।
ॐ ऐं जूं सः नैवेद्यं समर्पयामि ।
इसके बाद साधक न्यास करे –
करन्यास
ॐ ऐं जूं सः अङ्गुष्ठाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं जूं सः तर्जनीभ्यां नमः ।
ॐ ऐं जूं सः मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं जूं सः अनामिकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं जूं सः कनिष्टकाभ्यां नमः ।
ॐ ऐं जूं सः करतल करपृष्ठाभ्यां नमः ।
ह्रदयादिन्यास
ॐ ऐं जूं सः ह्रदयाय नमः
ॐ ऐं जूं सः शिरसे स्वाहा
ॐ ऐं जूं सः शिखायै वषट्
ॐ ऐं जूं सः कवचाय हूं
ॐ ऐं जूं सः नेत्रत्रयाय वौषट्
ॐ ऐं जूं सः अस्त्राय फट्
न्यास के बाद साधक श्री मृत्युंजय का ध्यान करे ।
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां वहंतं परम ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे ।।
ध्यान के बाद साधक निम्न मंत्र की 21 माला जप तंत्र सिद्धि माला से करे –
।। ॐ ह्रीं ह्रां ऐं जूं सः मृत्युंजयाय सर्व शान्तिं कुरु कुरु ह्रीं नमः ।।
।। Om hreem hraam aing joom sah mrityunjayaay sarv shantim kuru kuru hreem namah ।।
साधक इस जप के लिए रुद्राक्ष माला का भी प्रयोग कर सकता है ।
जप हो जाने पर साधक को अग्नि प्रज्वलित कर आहुति प्रदान करनी है । साधक को 108 आहुति उपरोक्त मंत्र से ही अग्नि में समर्पित करनी है । यह आहुति साधक गाय के कच्चे (जिसको गरम न किया हो या कुछ भी मिलाया न हो) दूध से दे । इस प्रकार 108 आहुति होने के बाद साधक श्री भगवान मृत्युंजय को वंदन करे ।
साधक यह विधान स्वयं या किसी और व्यक्ति के लिए भी कर सकता है । किसी और के लिए करने की स्थिति में साधना से पूर्व संकल्प लेना आवश्यक है कि मैं अमुक व्यक्ति के लिए यह विधान क्रम कर रहा हूं, भगवान मृत्युंजय मुझे आज्ञा प्रदान करें ।
इस प्रकार यह अद्भुत विधान पूर्ण होता है तथा साधक को शीघ्र ही जीवन में विविध रोगों से मुक्ति का अनुभव होने लगेगा ।
आपका जीवन रोगों से मुक्त हो सके और आप एक स्वस्थ - सबल जीवन जी सकें, ऐसी ही शुभेच्छा है ।
अस्तु ।
इस दुर्लभ और महत्वपूर्ण प्रयोग को प्रिंट करने के उद्देश्य से आप यहां से डाउनलोड़ कर सकते हैं ।
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