दादा गुरुदेव श्री सच्चिदानंद जी
वो हमारे गुरु के भी गुरु हैं, महागुरु हैं और सही अर्थों में कहा जाए तो ईश्वर का साकार स्वरूप हैं । जो कुछ भी जानकारी उनके बारे में उपलब्ध है, वह अनंत ब्रह्मांड में एक धूल के कण के बराबर भी नहीं है । पर फिर भी, जो कुछ जाना है वह सदगुरुदेव के श्रीमुख से ही जाना है । उनकी करुणा सभी सन्यासी और गृहस्थ शिष्यों पर बराबर बरसती है, अब चाहे इस बात का अहसास आप कर सकें अथवा नहीं ।
वैसे भी अहसास तो साधनात्मक लेवल के हिसाब से ही होते हैं । किसी - किसी को उस परम सत्ता की करुणा बरबस ही आंखों में आंसू ला देती है और, कोई - कोई सिद्धि प्राप्त करने के लिए लाखों मंत्र जप कर लेता है पर अनुभूति भी नहीं हो पाती । क्या गजब का खेल है उस रचनाकार का ।
पर जो प्रेम में डूबे होते हैं, उनके लिए तो साधनात्मक धरातल बहुत पहले ही तैयार हो जाता है । अब वो साधना करें या न करें, उससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता । फर्क पड़ता है तो इस बात से कि वो कब साधना करने के लिए अपने मनोभाव सदगुरुदेव के सामने रखें । गुरु भी ऐसे शिष्यों को तैयार करने में बहुत रुचि रखते हैं क्योंकि ऐसे साधक या शिष्य ही समाज में नयी चेतना दे सकते हैं ।
अब सवाल उठता है कि आखिर प्रेम किससे किया जाए ।
अपने चारों तरफ नजर घुमा कर देख लीजिए, क्या ऐसा कोई भी नजर आता है जिससे आप प्रेम न कर सकें???
कहीं ऐसा तो नहीं कि आप किसी को ज्यादा पसंद करते हों और किसी को ज्यादा नापसंद । अगर ऐसा कुछ है तो फिर आपको थोड़ा विचार करने की आवश्यकता है, अपने अंदर झांकने की आवश्यकता है । ऐसा इसलिए कि प्रेम तो सभी बंधनों से ऊपर होता है, प्रेम तो बिना शर्त होता है और प्रेम तो समर्पण का ही दूसरा नाम होता है । बेशक आपका कोई शत्रु भी हो सकता है, पर आपको प्रेम उससे भी करना आना चाहिए ।
आप कह सकते हैं कि ऐसा कैसे संभव है?
संभव है मेरे भाई, सब संभव है । थोड़ा नजरिया बदलने की आवश्यकता है और, थोड़ा अपने आपको ऊपर उठाने की आवश्यकता है ।
याद करिये बचपन में जब हम किसी से लड़ते हैं तो ऐसा लगता है कि ये दुश्मनी हमेशा चलेगी । पर जैसै - जैसे आप उम्रदराज होते हैं, आपको अपना वो बचपना भी अच्छा लगने लगता है । वहां किसी दुश्मनी का अहसास नहीं होता पर, अगर गौर करेंगे तो आपको अपने बचपन से भी प्रेम हो जाता है । और, वह प्रेम होता है बिना शर्त वाला । वहां किसी भी प्रकार की कोई दीवार नहीं होती और आप उसमें ड़ूब जाना चाहते हैं । बचपन के मित्रों को याद करके आप रोना चाहते हैं और चाहते हैं कि वह क्षण आपकी जिंदगी में फिर से वापस आयें । और, ये सब कुछ आप अकेले ही कर लेना चाहते हैं । सच पूछें तो आप फिर से छोटे बन जाना चाहते हैं ।
बस यही होता है प्रेम । जब आप दुनियादारी के छलावे से दूर, किसी अबोध शिशु की भांति उस प्रेम का अहसास फिर से करना चाहते हैं पर अफसोस कि जब हम अपने आस - पास देखते हैं तो हर कोई किसी न किसी स्वार्थ वश ही हमसे जुड़ा होता है । बिना शर्त प्रेम की बात करना वहां बेमानी ही है ।
अब, दुनिया को बदलना तो संभव नहीं है तो क्यों न हम स्वयं को ही बदल लें । सारी दुनिया प्रेम चाहती तो है, पर वह आपको प्रेम दे नहीं सकती है । तो क्यों न हम स्वयं ही प्रेममय बन जायें, कौन जाने हमसे मिलकर किसी की प्रेम प्राप्ति की अभिलाषा पूरी हो जाए । लेकिन, यह प्रेम होना चाहिए उस तरह का, जैसा कि एक अबोध शिशु का अपनी मां के लिए होता है । यहां आपकी मां तो आपके गुरु ही हैं । पर ध्यान रहे कि इस संसार में छलावा भी बहुत है । गुरु आप हर किसी ऐरे-गैरे को नहीं बना सकते । जिस प्रकार शिष्यता की एक कसौटी होती है, वैसी ही गुरु की भी होती है । गुरु बहुत सोच - समझकर बनाना चाहिए । हर प्रकार की परीक्षा लेकर देख लीजिए गुरु की । जांच लीजिए कि वह गुरु बनाने के लायक हैं भी या नहीं । यह सब काम पहले कर लेना चाहिए । और, हमें ऐसा करना ही चाहिए, यह शास्त्र सम्मत है ।
पर, ध्यान रखिये, एक बार कदम बढ़ाने के बाद पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि गुरु भी परीक्षा लेने में कोई कंजूसी नहीं करते हैं ।
पर अगर गुरु से प्रेम किया है तो हर परीक्षा में सफलता मिलेगी, इस बात की गारंटी है; साधना और सिद्धियां तो बहुत पीछे छूट जाती हैं ।
कई बार प्रारब्ध वश बहुत सारी चीजें होती हैं - कुछ चीजें बहुत आसानी से प्राप्त हो जाती हैं पर कुछ, बार - बार प्रयास करने के बाद भी प्राप्त नहीं हो पाती हैं । वचनबद्ध होने के कारण मैं उस घटना के बारे में तो नहीं बता सकता जिसने इस लेख को लिखने के लिए प्रेरित किया है लेकिन मूल तथ्य तो सामने रख ही सकता हूं ।
मैंने पिछले लेखों में शांति विधान से संबंधित महत्वपूर्ण विधान सामने रखा था लेकिन यह नहीं बताया थी कि इसकी पृष्ठभूमि क्या थी । आज इसकी भी चर्चा कर ली जाए ।
दरअसल इसकी शुरुआत दादा गुरुदेव श्री सच्चिदानंद जी के आशीर्वाद के बाद ही हो पायी थी । मेरे जीवन में अशांति और मानसिक पीड़ा का एक ऐसा क्रम, जिसका समाधान किसी भी साधना से संभव नहीं था, उसका निवारण, केवल दादा गुरुदेव के आशीर्वाद से ही संभव हुआ था ।
आप कह सकते हैं कि ऐसी कौन सी चीज है जो सदगुरुदेव के लिए असंभव है और जिसके लिए दादा गुरुदेव के आशीर्वाद की आवश्यकता पड़ गयी?
तो भाई मेरे...! मूल तथ्य को समझने का प्रयास कीजिए । सदगुरुदेव का काम आपके प्रारब्ध को बदलना नहीं है । वह आपके कष्टों को कम तो कर सकते हैं, उसे खत्म नहीं करेंगे । क्योंकि ऐसा करना तो सृष्टि के नियमों के खिलाफ है और कोई भी गुरु ऐसा नहीं करना चाहेंगे । हां, ये बात अवश्य है कि आपके सेवाभाव, समर्पण, साधना से प्रसन्न होकर कर्म-फल की इस यात्रा में कंधे से कंधा मिलाकर साथ चल सकते हैं और अगर जरूरी हुआ तो फिर आपके लिए एक नये प्रारब्ध की सृष्टि भी कर सकते हैं।
ये कुछ - कुछ ऐसा ही है जैसे प्रशासन किसी शहर में ट्रैफिक जाम से बचने के लिए एक नया बाईपास बना देते हैं कि लंबी दूरी के वाहनों को शहर से होकर ही न गुजरना पड़े । ऐसा ही कुछ सदगुरुदेव हम लोगों के लिए भी करते हैं, वह प्रारब्ध नहीं बदलते, बल्कि उसको काटने में मदद करते हैं और इस जीवन में भी न्यूनता न रहे, इसके लिए नये प्रारब्ध की भी सृष्टि कर देते हैं ।
और, इससे भी बढ़कर, आपकी लगन, साहस, धैर्य इत्यादि गुणों में कोई कमी न आ पाये, ऐसा प्रयास सदगुरुदेव निरंतर करते रहते हैं पर, कर्म-फल भोग की यात्रा तो आपको ही करनी है ।
लेकिन दादा गुरुदेव की बात अलग है, वह इन सब चीजों से ऊपर हैं । वह दादा हैं हमारे ।
घर पर भी हमारे पिता हमारी गलतियों पर पिटाई कर सकते हैं लेकिन हमारे दादाजी तो हमें हमेशा बचाते ही हैं । सच है न!
बस दादा गुरुदेव भी ऐसे ही हैं । वो तो प्रेम की साकार मूर्ति हैं और अपने पोते - पोतियों पर अथाह करुणा बरसाते ही हैं । नववर्ष पर उन्हीं के श्रीमुख से प्राप्त एक दुर्लभ मंत्र आप सबको उन्हीं की आज्ञा से सौंप रहा हूं ।
माया बीज जिसे हम माता भुवनेश्वरी का बीज मंत्र भी कहते हैं, उससे संयुक्त यह मंत्र जीवन में दादा गुरुदेव श्री सच्चिदानंद जी की कृपा प्राप्त कराता है, साथ ही जीवन में अभावों से भी मुक्त करता है -
।। ॐ ह्रीं ह्रीं ॐ महागुरु सच्चिदानंदाय नमः ।।
।। Om Hreem Hreem Om Maha Guru Sachhidanandaay Namah ।।
इस मंत्र की नित्य प्रतिदिन कम से कम 1 माला तो अवश्य ही करनी चाहिए ।
ध्यान रखिये, साधना से ज्यादा महत्वपूर्ण गुरु के प्रति प्रेम है, समर्पण है । अगर प्रेम पूर्वक मंत्र जप करेंगे तो दादा गुरुदेव की कृपा का अवश्य अनुभव करेंगे ही । इस मंत्र को विशिष्ट मुहूर्त पर भी जप कर सकते हैं और दैनिक साधना में भी ।
आप सबको भी उनकी कृपा प्राप्त हो, उनका आशीर्वाद प्राप्त हो और इस सबसे बढ़कर उनका प्रेम प्राप्त हो, ऐसी ही शुभेच्छा है ।
अपने अभीष्ट मंत्र का सवा लाख का जप
अगर आप इस मंत्र का अथवा किसी भी मंत्र का सवा लाख का जप करने के इच्छुक हैं तो इसके 2 तरीके हैं -
पहला तरीकाः अगर आपके मन में कोई इच्छा या कामना है और आप उसकी पूर्ति इस मंत्र अथवा किसी अन्य मंत्र के माध्यम से करना चाहते हैं तो उसके लिए अपने अभीष्ट मंत्र की ऊर्जा को कम समय में ज्यादा संघनित कर लेना उचित होता है । इसका मतलब ये है कि कम समय में ज्यादा ऊर्जा का स्तर तैयार कर लेना । इसके लिए आप 7, 11 अथवा 21 दिन का संकल्प लेकर साधना करें । संकल्प की विधि आपको दैनिक पूजन अथवा यज्ञ विधान की पुस्तक से प्राप्त हो जाएगी । अगर किसी प्रकार की दुविधा हो तो आप यहां टिप्पड़ी के माध्यम से बता सकते हैं । सवा लाख का जप करने के उपरांत दशांश यज्ञ करना उचित रहता है अर्थात कुल जप संख्या का दसवां हिस्सा यज्ञ करना चाहिए । इसके अलावा जप का दशांश तर्पण और उसका दशांश मार्जन भी करना चाहिए । किसी कारण वश यह न कर सकें तो उतनी संख्या में मंत्र जप करने से भी आपका काम हो जाएगा ।
दूसरा तरीकाः यह तरीका उन लोगों के लिए है जिनका समर्पण अपने गुरु के प्रति पूर्ण हो और वह चाहते हैं कि जो कुछ भी हो वह गुरु इच्छा से ही हो । ऐसा इसलिए कि हम नहीं जानते कि जो कार्य हम जबरदस्ती मंत्र ऊर्जा के माध्यम से करवा लेते हैं वह सच में हमारे हित में ही है अथवा नहीं । कई बार ऐसा भी होता है कि मनोवांछित कार्य तो साधना के माध्यम से संपन्न हो जाता है लेकिन उसके फल सुखदायी नहीं होते । ऐसा इसलिए कि प्रारब्ध का एक निश्चित क्रम होता है, वहां कोई भी जोर-जबरदस्ती काल-क्रम को गड़बड़ा देती है और अंततः हमारी मेहनत बेकार चली जाती है । इसलिए बेहतर होता है कि आप सवा लाख या उससे भी ज्यादा संख्या का जप संकल्प लेकर तो करें लेकिन किसी प्रकार की इच्छा मन में न रखें । यहां अवधि का महत्व नहीं होता है । आप सवा लाख का जप 41 दिन में या 3 महीने में भी कर सकते हैं । प्रतिदिन की 11 माला जप करते हुये आप इस मंत्र जप को पूरा कर सकते हैं । जो इतना भी नहीं कर सकते, वह प्रातः 5 माला और शाम को 5 माला जप करते हुये भी इस मंत्र जप को पूरा कर सकते हैं । इससे न सिर्फ मंत्र की ऊर्जा को पूरी तरह से आत्मसात करने का अवसर मिलता है बल्कि, इससे वह कार्य भी संपन्न होने लग जाते हैं जिनकी आप सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं । और तब, यह सब सिर्फ गुरु इच्छा से ही होता है और, गुरु की पूर्ण कृपा भी प्राप्त होती ही है ।
दोनों ही तरीकों में गुरु आज्ञा और मंत्र जप के करने के बाद समस्त मंत्र जप को गुरु चरणों में समर्पित करना न भूलें ।
अस्तु ।
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