आवाहन - भाग 3
गतांक से आगे...
सहयोगी शब्द मेरे लिए नया नहीं था मगर जो कुछ भी सहयोगी के बारे में पता चला निश्चित रूप से एक नया अध्याय था। और, जाना मैंने कि सहयोगी की उपयोगिता क्या है। आवाहन के कई गुप्त सूत्रों में से एक है सहयोगी या आत्म पुरुष। इस साधना के मध्य सूक्ष्म जगत में प्रवेश के बाद ध्यान किया जाता है एक आकृति का। उस आकृति की कल्पना हम चाहे जैसी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए ताकतवर या फिर चतुर या फिर खोजी।
उसके साथ ही साथ उस आकृति को त्रिनेत्र के मध्य स्थापित किया जाता है ।
उस आकृति का ध्यान करते वक़्त निम्न मंत्र का जाप करते रहना चाहिए
।।ॐ आत्म पुरुष सिद्धये नमः।।
ये सम्पूर्ण क्रिया सूक्ष्म जगत में ही की जाती है।
धीरे-धीरे इस प्रक्रिया को करते रहने से एक पुरुष आकृति प्रकट होती है जो कि तीसरे नेत्र पर ही स्थापित रहती है ।
सहयोगी का निर्माण सूक्ष्म जगत में किए गए आवाहन के द्वारा होता है इस लिए उसमें न तो जल तत्व होता है न ही भूमि तत्व।
वह आकृति ठीक उसी प्रकार से प्रकट होती है जिस प्रकार से हम उसकी कल्पना करते हैं। उस सहयोगी का बिंब अभ्यास से हमेशा उपस्थित रहता है। अभ्यास के मध्य ऐसा भी समय आता है जब सहयोगी पुर्नाकृति में परिवर्तित हो जाता है। अब आप उस सहयोगी को एक नाम प्रदान करते हैं। सहयोगी उस नाम को अपना लेता है और उसकी सत्ता आपके साथ ही जुड़ी हुई होती है। कहने का मतलब ये है कि सहयोगी आपका ही एक भाग होता है पर निश्चित ही समय आने पर आप उसका खंडन करके अपने से अलग कर सकते है।
सहयोगी के बारे में एक और विशेष तथ्य ये भी पता चला कि सहयोगी में किसी भी एक चीज़ की भावना दी जाती है, दूसरे शब्दों में उसे कोई एक निश्चित वर्ग के काम के लिए ही निर्मित किया जाता है।
जैसे कि सन्देश वाहक । संदेशवाहक सहयोगी आपका सन्देश किसी भी रूप में आप जहां चाहें वहां पहुंचा सकता है, त्रिवार्गात्मक होने के कारण, उसे सैकड़ों मील दूर जाकर सन्देश पहुंचाने के लिए कुछ मिनट मात्र ही लगते हैं। इसी तरह अगर सहयोगी का निर्माण किसी को पीड़ा पहुंचाने के लिए किया जाता है तो उसे जिस व्यक्ति को पीड़ा पहुंचाने के लिए कहा जाएगा वह तुरंत ही अलग-अलग तरीकों से उसे मानसिक यातना देता रहेगा और तब तक देता रहेगा जब तक की आप खुद उसे अटके नहीं।
इसी क्रम में रोग दूर करने के लिए, जासूसी करने के लिए, लोगों के मन की बात जानने के लिए, दूसरे लोक की खबर लेने के लिए, किसी के घर पर चौकी पहरा लगाने के लिए, लोगों को स्वप्न में जाकर डराने के लिए….विभिन्न काम के लिए नाना प्रकार से सहयोगी अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करता है। अब जाकी रही भावना जैसी……
सहयोगी या आत्म पुरुष साधना को कुछ ही दिनों में सिद्ध किया जाता है और फिर वह एक आज्ञा पालक सेवक की तरह काम करता ही रहता है, ध्यान में रखने योग्य बात ये है कि सहयोगी का कार्य क्षेत्र अपने आपमें मर्यादित है और वो उसी काम को कर सकता हे जिसके लिए उसका निर्माण हुआ है। दूसरी बात कि सहयोगी सिर्फ त्रिवर्ग के काम कर सकते है, मतलब कि उनका स्थूल शरीर का निर्माण संभव नहीं है और न ही वो स्थूल कार्य कर सकते है।
मैं चमत्कृत हो चुका था । अपने ही अन्दर कितनी शक्ति निसृत हे वह इससे ही जाना जा सकता है। खुद ही सृजन करने की क्षमता प्राप्त करके सिद्धि के प्रतिरूप को बनाना…सही में मनुष्य जब अपने बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो पता नहीं वो क्या-क्या कर सकता है।
उसके भी आगे मैंने जो तथ्य जाना वो तो उससे भी अधिक चमत्कृत करने वाला था ।
“सहयोगी के निर्माण के बाद, आगे अभ्यास से महासहयोगी का निर्माण किया जाता है, उसकी शक्तियां अनंत होती है और वो सर्वशक्तिमान कुछ भी कर सकता है, वह स्थूल रूप भी ले सकता है, यूं उसमें वैताल या फिर वीर जितनी शक्ति होती है. धीरे-धीरे अभ्यास के बाद उसे भी सिद्ध किया जा सकता है."
मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि तंत्र का क्षेत्र अनंत है, अगर भावना न होती तो मैं ये सब कभी नहीं जान पाता। अब तो वह रोज़ आने लगी थी अपने सूक्ष्म शरीर में। और हम दोनों एक दूसरे से घंटों बातें करते रहते और यूं ही दिन महीनों में बदलने लगे। सूक्ष्म जगत में भी मैंने अब जाना बंद कर दिया था, पर एक सिद्धात्मा श्री चण्डेश्वर से काफी आत्मीयता थी, उनके लिए कभी-कभी जाकर के आ जाता था।
आज भी भलीभांति याद है वो रात, भावना को याद कर ही रहा था, देखा रात के १ बज रहे हैं, अचानक कमरे में जो बल्ब जल रहा था, टुकड़े-टुकड़े हो कर टूट गया, खिड़की जोर से एक बार खड़की और एक तेज़ हवा का झोंका कमरे में प्रवेश कर गया और आते-आते आवाहन के लिए जो मोमबत्ती जलाई थी वो भी बुझ गयी। देखना तो कुछ संभव ही नहीं था। पूरा कमरा अंधकार से घिर गया था. उसी घोर अंधकार में, अपने पास किसी को महसूस किया मैंने, भावना ही थी वह । धीरे से वो मेरे पास, एक दम पास आ गई। मेरा हाथ पकड़ा उसने और कहा "में तुम्हारा साथ कभी नहीं छोडुंगी". और मैं अपने आपमें जैसे सब कुछ पा गया, दुनिया तो मेरी मेरे पास ही थी।
सुबह जब नींद खुली तो कोई नहीं था. बल्ब के टुकड़ों को उठाया और बाहर फेंका। शाम तक इधर उधर घूमता रहा। यूं भी मैं भावना के आने के बाद अपने कमरे से कभी-कभी तो ३-३ दिन तक बाहर ही नहीं आता था। शाम होने लगी तो उसका इंतज़ार करने लगा, पर जब ३ बज गए कोई खबर नहीं. मैं तुरंत ही बैठा और सूक्ष्म जगत में प्रवेश किया, पर मुझे वो नहीं दिखी तो स्थूल जगत में आ गया. मुझे लगा कि मैं बहुत व्याकुल हो रहा हूं, मुझे इतनी चिंता भी नहीं करनी चाहिए. और ऐसे ही मन को समझाके शांत भाव से बैठा रहा। फिर भी मन तो व्याकुल था ही। धीरे धीरे रात हुई. आज भी कोई खबर नहीं. फिर भी मैं अपने आपको शांत करने की कोशिश करता रहा. फिर सुबह से शाम फिर रात और आज फिर सुबह हो गयी. कोई अता-पता नहीं. रात को मैं आवाहन के लिए बैठा, और भावना का ही आवाहन करने लगा…लेकिन कुछ नहीं हुआ।
ऐसा तो आज तक कभी नहीं हुआ था। बस और फिर चला गया सूक्ष्म जगत में एक बार और…श्री चण्डेश्वर से पूछने की क्या उनके पास कोई माहिती है? श्री चण्डेश्वर को पूछा कि मैं भावना को खोज रहा हूं। उन्होंने शांत भाव से पूछा की कौन भावना? मैंने कहा वह यहां की ही एक सिद्ध आत्मा है. उन्होंने कहा कि यहां पर कोई भावना नहीं है। मैंने कहा तो वो कहा गयी है क्या आप मुझे बता देंगे? उन्होंने कहा शायद तुम समझे नहीं "यहां पर कोई भावना थी भी नहीं और है भी नहीं" मैंने कहा शायद आपको पता नहीं है मैं उससे यही मिला हूं। उन्होंने कहा कि बंधु तुम्हें मालूम है कि यहां की हरेक आत्मा व् सिद्धात्मा एक दुसरे से परिचित होती ही है, अगर तुम्हें मेरी बात का विश्वास न हो तो किसी से भी पूछ लो"
मैंने कहा ठीक है, मगर यह क्या ….मैंने न जाने कितने आत्मा सिद्धात्मा से उसके बारे में पूछा, सब ने यही कहा कि इस नाम की कोई सिद्धात्मा यहां पर है भी नहीं और न ही थी। वहां के सिद्धात्मा मानसिक पृष्ठ भूमि को सहज ही जान लेते थे, इस लिए मेरे मानस में भावना का चेहरा लाते ही वो भी उसे देख लेते थे और तुरंत ही कहते कि यहां पर ऐसी कोई सिद्धात्मा है ही नहीं। ये मेरे साथ झूठ नहीं बोल सकते लेकिन फिर बात क्या है…मैंने एक महीने तक उसका इंतज़ार किया पर वह कभी नहीं दिखी, इस दरम्यां मैंने सूक्ष्म जगत से भी संपर्क बनाये रखा जो कि व्यर्थ ही था।
मेरी दशा दयनीय हो गयी थी, और मेरा सब कुछ छिन गया था. महीने भर तक उसका इंतज़ार, और फिर वह हताशा। उसके बिना ज़िन्दगी व्यर्थ ही हे लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि उसका अस्तित्व हो ही नहीं। पर सूक्ष्म जगत की सिद्धात्मा किसी भी हालत में झूठ नहीं बोल सकतीं।
फिर आखिर कौन सा सत्य है.. उसे पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं लेकिन करूं भी तो क्या…मैं पागल की सी हालत में इधर उधर फिरता रहता, और फिर एक दिन मैंने हार स्वीकार कर ही ली की मैं उसे नहीं पा सकता। लेकिन मुझे ये राज़ तो जानना ही है कि आखिर हुआ क्या था??
एक साल तक उसी सदमे में जीता रहा मैं ….और बस पिछले एक डेढ़ महीने से यहीं भूतनाथ की सीढ़ियों पर बैठ कर यही सोचता रहता हूं कि वो थी कि नहीं, थी तो वो कहां है, क्यों छोड़ा आखिर उसने मुझे? क्यों वो चुप चाप चली गयी लेकिन उसका तो अस्तित्व था ही नहीं !!!
और फिर से हताश और खिन्न सा कोशिश करता की कोई कड़ियां जुड़ जायें। पर ये तो शून्य में इमारत थी जो घर है ही नहीं, उसमें रहा कैसे जाए, कहते हैं किसी कहानी की शुरुआत और अंत होता ही नहीं, मेरी ये कहानी कभी पूरी होगी ? शाम घिर आई थी और में शून्य में ताकता हुआ चल दिया। मेरे पास कोई जवाब नहीं था, जो मेरे सवालों का समाधान कर सके।
(क्रमशः)
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