शक्ति प्रवाह और मनुष्य शरीर
भूतकाल में एक राजा हुये थे जो अपनी प्रजा का लालन - पालन बड़े प्रेम से किया करते थे । लेकिन समय बीतने के साथ उन पर कार्य का दबाव बढ़ने लगा तो वह परेशान रहने लगे । अब उनको हर कार्य बड़ा भारी लगने लगा और ऐसा प्रतीत होता कि मानो सारे राज्य का भार उन्हीं के ऊपर आ गया है । रातों की नींद गायब हो गयी और मन वैराग्य की ओर मुड़ने लग गया ।
ऐसा सबके साथ होता ही है । जब हम जिम्मेदारियों से भागना चाहते हैं तो सीधे वैरागी बन जाना चाहते हैं । जबकि वैराग्य अवस्था तो कुछ और ही होती है । खैर उस पर चर्चा बाद में, अभी तो फिलहाल राजा पर केंद्रित रहते हैं ।
अब राजा ने पक्का निश्चय कर लिया था कि अब उसे सब छोड़ - छाड़कर जंगल में चले जाना है और वहां भगवान की भक्ति करनी है । निश्चय अटल था पर एक दुविधा भी थी । अब राज्य का भार किसके कंधों पर छोड़कर जाये? सारे मंत्रीगण और पार्षद एक उपयुक्त राजा की तलाश में जुट गये । महीना भर बीतने को आया लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति न मिला जो राज्य का भार संभाल सके ।
फिर वही हुआ जो हम सब करते हैं । जब मनुष्य प्रयास करते - करते थक - हार जाता है तब ही वह गुरु की शरण में जाता है । राजा भी गुरु की शरणागत हुआ ।
गुरु के पास पहुंचकर अपनी व्यथा सुनायी और कहा कि हे गुरुवर, मैं थक चुका हूं, अब होता नहीं है । अब किसी और को राज्य का भार सौंपकर वन को प्रस्थान करना चाहता हूं । लेकिन अभी तक मेरा कोई विकल्प नहीं मिला है मुझे । अब क्या करुं गुरुवर?
गुरुजी मुस्कुराकर बोले, "एक काम करिये राजन्, इस राज्य का भार आप मुझे सौंप दीजिए" ।
ये सुनकर राजा बहुत खुश हुआ और कहा कि इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता । आपसे बेहतर इस राज्य का भार कौन संभाल सकता है!?
अब गुरुजी ने पूछा कि हे राजन! अब आप क्या करेंगे? राजा ने कहा कि अब मैं निश्चिंत होकर जंगल में जाकर तपस्या कर सकूंगा । जो थोड़े - बहुत धन की आवश्यकता है, वह खजाने से ले लुंगा ।
गुरुजी ने कहा कि ये राज्य तो अब मेरा है । बिना मेरी आज्ञा के आप खजाने से 1 पैसा नहीं ले सकते ।
राजा ने कहा - बात तो आपकी सही है । अब तो कहीं नौकरी करके ही धन कमाना पड़ेगा ।
गुरुजी ने कहा - एक नौकरी मेरा पास भी है । अगर चाहो तो मैं दे सकता हूं । उससे तुमको धन भी प्राप्त होगा ।
राजा प्रसन्न हो गया, पूछा कि मेरे लिए क्या आज्ञा है गुरुजी?
गुरुजी ने कहा कि इस राज्य के राजा की नौकरी अभी खाली है । चाहो तो कर सकते हो ।
राजा तैयार हो गया । अब चूंकि वह राजा नहीं था, वह तो अपने गुरु की आज्ञा का पालन कर रहा था तो, उसका प्रत्येक कार्य गुरु कार्य ही बन गया था । इसलिए अब उसको थकान भी नहीं होती थी । और न ही पहले की तरह उलझनें उसको परेशान करती थीं । दिन भर गुरु का कार्य और रात को चैन से सोना । समय मिले तो साधना और तपस्या ...
जब उस राजा ने शरीर छोड़ा तो गुरुजी उसको अपने साथ ही दिव्य धाम तक छोड़कर आये ...
क्या सौभाग्य पाया था उस राजा ने ...
इसी प्रकार से हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य तब तक बोझ बना रहता है जब तक हम उसे "अपनी जिम्मेदारी" समझते रहते हैं । ये भूल जाते हैं कि इस भूतल की प्रत्येक क्रिया तो कोई और ही करता है । हम सब तो निमित्त मात्र हैं । अगर हम इस सारे कार्यों की जिम्मेदारी वापस उसी परमात्मा पर छोड़ दें तो हमारे ऊपर का जो भार है, वह स्वयं ही खत्म हो जाएगा । और, खत्म हो जाएंगी वह सारी परेशानियां भी जो इस भार के साथ ही आती हैं ।
आप पूछ सकते हैं कि अगर हम जिम्मेदारी छोड़ देंगे तो काम कैसे होंगे?
जानकारी तो आपको भी है लेकिन फिर से बता देता हूं कि काम तो सारे तब भी होंगे जब आप भी न होंगे ।
जो करना चाहिए वह सिर्फ इतना सा है -
जो भी करें, उसे गुरु आज्ञा मानकर ही करें । इस प्रकार करें जैसे वही आपके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण या कार्य है । लेकिन चूंकि वह कार्य आपका है ही नहीं, वह तो गुरु कार्य है तो उस कार्य के फल पर आपका कोई हक है ही नहीं । इसलिए बेहतर है कि उसके फल से स्वयं को अलग कर दें, ठीक इस प्रकार जैसे कि आपको उसकी आवश्यकता है ही नहीं ।
अगर आपने फल का त्याग कर दिया तो सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि तत्क्षण आपको शांति प्राप्त हो जाएगी । लेकिन अगर आपने स्वयं को फल से अलग नहीं किया तो फिर यह (कर्मफल की इच्छा) कामना में बदल जाएगी। और, कामना ही समस्त प्रकार के क्रोध, शोक, राग और द्वेष की जननी है । यह हमारे मन मस्तिष्क और ह्रदय में जाकर अपना स्थान बना लेती है । कुछ इस तरह कि फिर वहां पर सद्गुरु का विराजमान होना कठिन हो जाता है ।
ध्यान रहे, यही कामनायें जीवन पर्यन्त और मृत्यु के बाद भी हमारा पीछा नहीं छोड़ती हैं । ये हमको एक ऐसे भ्रम जाल में फंसा देती हैं जिससे निकल पाना लगभग असंभव होता है ।
वैसे, आप पूछ सकते हैं कि यहां पर इतना भाषण दे रहे हैं, क्या आप खुद कामनाओं के जाल से निकल पाये हैं?
इसके उत्तर में, मैं दावा तो नहीं करता कि मैं समस्त कामनाओं के जाल से बाहर आ गया हूं लेकिन अब मेरे मन में अपार शांति रहती है । वैसे भी जब तक मनुष्य शरीर है तब तक कामनायें तो रहेंगी ही लेकिन सदगुरुदेव की कृपा के कारण अब कामनायें घेरकर नहीं बैठती हैं और, परेशान भी नहीं करती हैं ।
अब आपका सवाल होना चाहिए कि आखिर ऐसा संभव हुआ कैसे?
इसका उत्तर है - शक्ति प्रवाह के कारण और, गुरु प्रदत्त इस शक्ति का प्रवाह लगातार कई वर्ष तक रहा है । आज भी होता है । रोज सुबह - शाम होता है । दैनिक पूजन के समय होता है ।
अगर आप पूछें कि क्या ऐसा आपके साथ संभव हो सकता है? - तो मेरा जवाब होगा कि बिलकुल हो सकता है और ऐसा होना भी चाहिए ।
तो करना क्या होगा?
वही, जो ऊपर कहानी में लिखा है, सारी जिम्मेदारियां गुरु के ऊपर छोड़ दीजिए और बन जाइये गुरु के सेवक । अपने आपको कर्म-फल से अलग कर दीजिए और अपने इस शरीर को केवल गुरु कार्य में ही लगाइये । गुरु जो भी आज्ञा आपको दें, उसको करने में एक पल भी विचार न कीजिए ।
शक्ति का प्रवाह तो स्वतः ही हो जाएगा ।
नहीं समझ आया न । चलिए, प्रश्न-उत्तर एवं उदाहरण से समझाता हूं -
ऐसा आपके साथ कभी न कभी हुआ ही होगा कि कोई व्यक्ति (गुरु भाई भी हो सकता है) आपके पास मदद के लिए आया हो, तो आपके किस प्रकार से उसकी मदद की थी?
आप कह सकते हैं कि आपने उस व्यक्ति की पैसे से मदद की थी, उसको गुरु दीक्षा दिलवायी थी या एक - दो साधनायें भी बतायी हो सकती हैं ।
लेकिन क्या आपने मदद करने के लिए कभी अपनी साधनात्मक ऊर्जा को भी खर्च किया था?
मेरे अंदाज से 99 प्रतिशत लोग इस बात को स्वीकार करेंगे कि वह किसी भी गुरुभाई या बहिन की मदद अपनी स्वयं की साधनात्मक शक्ति को खर्च करने की कीमत पर नहीं करेंगे ।
बस यहीं पर फर्क आ जाता है और, यहीं से रास्ता अलग हो जाता है ।
जब यह शरीर ही गुरु को समर्पित कर दिया तो इस शरीर के माध्यम से संपन्न होने वाली साधनायें तो गुरु की पूंजी स्वतः ही हो गयीं और उन साधनाओं के माध्यम से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा पर भी तो केवल सदगुरुदेव का ही अधिकार हुआ ।
तो आपका क्या था जो आपने किसी की मदद इस साधनात्मक ऊर्जा से की, और आपका कुछ खर्च हो गया?
अब तो सवाल और भी जटिल हो गया है कि अगर हम सबकी मदद ऐसे ही करते रहेंगे तो हमारे पास क्या बचेगा?
पहली बात तो यही है कि हमारे जीवन में कुछ भी ऐसे ही नहीं होता । हम जिस गुरु के शिष्य हैं वह हमारे १ - १ क्षण का हिसाब रखते हैं और आप सोचते हैं कि कोई भी ऐरा - गैरा आपके पास मदद के लिए मुंह उठा कर चला आयेगा । बिना सदगुरुदेव की आज्ञा के कोई आपके पास बैठ भी नहीं सकता और आप ये सोचते हैं कि जो व्यक्ति मदद मांगने आया है वह ऐसे ही चला आया है ।
दरअसल जो आपके पास चलकर आया है वह आया नहीं है, उसको भेजा गया है । यह तो सदगुरुदेव की ही आज्ञा होती है जब कोई आपके पास चलकर आता है । पर चूंकि हम उस साधनात्मक पूंजी पर कब्जा करके बैठे हुये रहते हैं जिस पर हमारा कोई हक भी नहीं होता है, फलस्वरुप हम ऊर्जा के प्रवाह को ब्लॉक कर देते हैं । ये सब हम अंजाने ही करते रहते हैं और शायद इसलिए भी करते हैं ताकि हमारी ऊर्जा खर्च न हो जाए, कहीं हमारी सिद्धि चली न जाए, कहीं ऐसा न हो कि सामने वाले को तो सिद्धि मिल जाए और मैं खाली हो जाऊं ।
सोच कुछ भी हो लेकिन हम ऊर्जा के प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं, यह एक सच है । लेकिन ये सोच ही गलत है ।
एक बार मैंने सदगुरुदेव से पूछा, "आप मुझे यह समझाइये कि जब भी मैं किसी व्यक्ति की मदद करता हूं तो ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है, तो क्या मुझे उसे रोकना चाहिए?"
सदगुरुदेव ने कहा - क्यों रोकना है? अगर ऊर्जा प्रवाह होता है तो होने दो । (तुम्हारी ऊर्जा में) जो कमी होगी वह गुरु स्वयं ही पूरी कर देंगे ।
और ऐसा होता भी है - जब भी मैं गुरु पूजन करके गुरु मंत्र जप करता हूं तो मेरी ऊर्जा (में हुयी कमी) की पूर्ति उसी समय हो जाती है ।
तो क्या सोच रहे हैं प्रभु? क्या अब भी ऊर्जा के प्रवाह को रोकने का प्रयास करेंगे?
एक बात ध्यान रखिये जैसा ऊपर लिखा है, होता तो सब ऐसे ही है लेकिन यह इतने भी आसान तरीके से नहीं होता है जितना आसानी से लिख दिया है ।
कारण - हम स्वयं ही हैं । जन्म - जन्मांतरों की तो छोड़ दीजिए, इसी जन्म की ही कामनायें, क्रोध, वासनायें इत्यादि तो अभी भी हमारे अंदर ही हैं । हम लोग साधक हैं, इन चीजों को अपने ह्रदय की अतल गहराइयों में दफन कर देते हैं कि खुद हमें भी कभी याद नहीं आती हैं कि कभी हमने वैसा सोचा या किया था ।
ध्यान रखिये, जब भी ऊर्जा का प्रवाह होगा तो वह ऊर्जा आपके ह्रदय की अतल गहराइयों तक प्रहार करती है और उन छुपी हुयी कामनाओं, वासनाओं, क्रोध इत्यादि को बाहर निकाल फेंकती है ।
आप कहेंगे कि ऊर्जा तो आपने दी थी तो वह आपके अपने ऊपर कैसे प्रहार कर सकती है?
तो भाई मेरे, वह आपकी ऊर्जा नहीं है, वह तो सामने वाले की ऊर्जा है जो आपसे मदद लेने आया है । इसलिए सही शब्दों में यह ऊर्जा का प्रवाह नहीं है, बल्कि आदान - प्रदान है ।
इसको ऐसे समझिये - जो व्यक्ति आपसे मदद लेने आया है वह किसी न किसी समस्या से ग्रस्त तो होगा ही । चाहे धन की कमी हो, आत्मविश्वास की कमी हो, किसी शत्रु से परेशान हो, घर में ही कलह से परेशान हो ... कारण कुछ भी हो सकता है लेकिन वह उस ऊर्जा से परेशान होता है और आपसे मदद मांगने आता है ।
आप अपनी साधनात्मक ऊर्जा का प्रवाह होने देंगे तो उस परेशान व्यक्ति को राहत मिलेगी ही । कितनी ऊर्जा का प्रवाह होगा, यह सदगुरुदेव तय करते हैं, आप नहीं । इसलिए निश्चिंत रहें और उस व्यक्ति का साधनात्मक मार्गदर्शन भी करें । इस तरह से आप सदगुरुदेव की आंख, हाथ, कान बनकर कार्य करते हैं । यही गुरु कार्य है और सदगुरुदेव के ज्ञान का वास्तविक प्रसार है जब आप समाज में साधनात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी सुनिश्चित करते हैं और वह भी बिना किसी स्वार्थ के ।
तो ऊर्जा का ये प्रवाह होगा कैसे?
बस मन में ये संकल्प करना होता है कि हे सदगुरुदेव, इस व्यक्ति के लिए जरूरी ऊर्जा आप मेरे खाते से प्रदान कर दीजिए । आप साधक है, आपके इतने संकल्प मात्र से सामने वाले व्यक्ति को ऊर्जा सदगुरुदेव आपके साधनात्मक खाते से प्रदान कर देंगे ।
यही संकल्प सिद्धि भी है मेरे भाई । जैसे - जैसे अभ्यास बढ़ेगा, इसके विभिन्न पहलुओं से भी आप परिचित हो सकेंगे ।
और, चिंता किस बात की? जो साधनात्मक ऊर्जा आपसे खर्च हुयी है उसकी तो अगली बार के गुरु मंत्र जप में ही पूर्ति हो जाएगी ।
लेकिन इस क्रम में आप सामने वाले व्यक्ति की भी ऊर्जा ग्रहण करते हैं । यह ऊर्जा का संरक्षण का सिद्धांत है कि किसी भी सिस्टम में ऊर्जा का परिमाण निश्चित होता है । तो अगर आप ऊर्जा दे रहे हैं तो आपको मिलेगी भी । ये बात अलग है कि सामने वाले व्यक्ति की ऊर्जा उसके किसी काम की नहीं है क्योंकि उसके लिए तो वह नकारात्मक ऊर्जा है, जिससे वह परेशान है ।
लेकिन आपके लिए तो वह केवल एक ऊर्जा भर है ।
तो अब सवाल उठता है कि इस ऊर्जा प्रवाह का आपके ऊपर क्या प्रभाव पड़ेगा?
यह निर्भर करता है -
अगर सीमित समय की बात करें - तो आपके घर में आपकी वजह से लड़ाई - झगड़ा हो सकता है, आपके अंदर की छुपी हुयी कामनायें आपको परेशान कर सकती हैं, क्रोध का अतिरेक हो सकता है इत्यादि - इत्यादि । ध्यान रहे, इस ऊर्जा प्रवाह के फलस्वरुप बाहर वही आयेगा जो आपने अंदर दफन कर रखा है । लेकिन चिंता न कीजिए, इस प्रकार के प्रभाव २ - ४ दिन से ज्यादा नहीं रहते हैं, गुरु मंत्र के नियमित अभ्यास से आप इन प्रभावों से मुक्ति हासिल कर लेंगे ।
अगर लंबे अंतराल में देखा जाए तो - आप अपने क्रोध, वासनाओं और कामनाओं से ही पूरी तरह मुक्त हो सकते हैं और इसी जीवन में परम शांति प्राप्त कर सकते हैं । अगर सदगुरुदेव के प्रति समर्पण में कमी नहीं की तो संभव है कि इसी जीवन में ही परम सत्य का बोध हो जाए जो कि प्रत्येक साधक की परम इच्छा रहती है ।
वैसे, जीवन में जितना महत्व साधना करने का रहा, उससे ज्यादा तो गुरुभाइयों की मदद करने मात्र से ही प्राप्त हुआ है । तो क्या यह सोचने का विषय नहीं है कि आप जितना खर्च करते हैं, उसके बदले सदगुरुदेव आपको कितना दे देते हैं?
अगर स्वयं की बात करुं तो मैंने अपने जीवन को क्रोध से मुक्त होते हुये देखा है और आज भी देख रहा हूं । हालांकि अब तक की यात्रा आसान नहीं थी लेकिन जो मिला उसकी तुलना किसी भी भौतिक वस्तु से नहीं की जा सकती है और, अपनी इस अंतर्यात्रा पर निरंतर गतिशील आज भी हूं ।
मैंने यह सब मात्र ७ या ८ वर्षों की साधना और गुरुभाइयों की मदद के फलस्वरूप प्राप्त किया है । अगर इतनी ऊर्जा दीक्षा के माध्यम से प्राप्त करनी हो तो शायद लाखों रुपये भी कम पड़ जाएं । लेकिन कृपा है सदगुरुदेव की कि उन्होंने अपनी छत्र - छाया में इतना सब कुछ प्रदान किया । यहां ध्यान रखने की बात यह भी है कि जीवन में जो भी किया वह यह सब पाने की लालसा से नहीं किया था, वह तो केवल गुरु कार्य था मेरे लिए । सदगुरुदेव ने इतना कुछ दे दिया, यह तो केवल उनका आशीर्वाद है ।
क्रमशः...
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