आवाहन भाग - 29
“ॐ भोले...तेरी जटा में गंगा समाई
करो भलाई....हरे शिव शंकर पार्वती माई....”
बहुत दूर से पहाड़ी के ऊपर से आवाज़ आ रही थी; मैंने अंदाज़ा लगाया कि निश्चित रूप से कोई शाबर मंत्र की क्रिया में संलग्न होगा। खुरदुरे पत्थरों से पहाड़ पर चड़ने लायक एक छोटी सी पगडण्डी कुदरती रूप से बनी हुई थी, उससे ही ऊपर प्रगाढ़ जंगल में मैं आगे-आगे बढ़ रहा था। सूर्योदय का समय था।
मैंने एक बार भी ये नहीं सोचा कि मैं इस निर्जन स्थान में किस प्रकार पहुंच गया था...
आगे चलकर मुझे एक छोटा सा शिव मंदिर दिखा जिसके पास में ही एक और खंडित हालत में मंदिर था। जंगल के बीच में जहां दूर-दूर तक मानव का नामोनिशान नहीं, वहां पर इस प्रकार का मंदिर देख कर मन में यह विचार आया कि ज़रूर यहां पर किसी सिद्ध ने कभी इस मंदिर को स्थापित किया होगा।
पहाड़ की चोटी तो अभी बहुत दूर थी लेकिन मंत्र की ध्वनि आना बंद हो गया था। शायद यह ध्वनि इसी स्थान के आस पास से आ रही थी। तभी न जाने कहां से वहां पर दो सन्यासी प्रकट हो गए। दोनों में ज्यादा अंतर कर पाना संभव नहीं था। दोनों के परिधान, कद काठी, तथा सन्यासी बाना या पहचान एक जैसे ही थे। दोनों ने भगवा धोती पहन रखी थी तथा आपस में कोई वार्तालाप कर रहे थे। उस स्फुट प्रस्फुट वार्तालाप में मुझे इतना ही समझ में आया कि वह हिमालय के किसी प्राचीन मठ से यहां पर आये हुए हैं क्योंकि उनमें से एक सन्यासी बार-बार यह कह रहा था कि हम यहां हिमालय से आये है तो निश्चित रूप से उनको मिल कर ही जायेंगे तथा जल्द से जल्द उन्हें मिल कर हमें वापस हिमालय मठ में पहुंचना है। इससे ज्यादा में कुछ समझ नहीं पाया।
इतना बोल कर वे मंदिर के पास में ही बने किसी खण्डहर जैसे छोटे से मंदिर में प्रवेश कर गए। मैं भी उनके पीछे पीछे चल पड़ा। मुझे यह देख कर विस्मय हुआ कि मंदिर के अंदर किसी भी प्रकार की कोई मूर्ति नहीं थी, लेकिन कोई मानव आकृति बैठी हुई नज़र आ रही थी। वह विपरीत दिशा में बैठे हुए थे तथा कोई प्रक्रिया कर रहे थे। चेहरा तो देख नहीं पाया लेकिन उनकी पीठ पर बिखरे हुवे सफ़ेद बाल बहुत ही लंबे थे; दिशा उलटी होने के कारण उनका चेहरा नहीं दिख रहा था। उन्होंने अपने दुबले पतले शरीर को बैठे-बैठे ही अब मेरी दिशा में घुमाया तब उनका तेज पुंज वाला चेहरा एक रहस्यमय स्मित (मुस्कान) के साथ मेरे सामने दृष्टिगोचर हुआ।
चेहरा देख कर एक बारगी विश्वास नहीं हुआ कि यह तो वही सिद्ध हैं जो, हां! शायद ५ साल बीत गए थे उस घटना को, लेकिन पहिचानने में बिलकुल भी गलती नहीं हुई थी मुझसे। यह तो सिद्ध गिर क्षेत्र था सिद्धो की भूमि, यहां पर कई सारे गुप्त मठ हैं जिनके बारे में काफी कुछ सुना था। कुछ साल पहले ऐसे ही कई मठों की खोज करने के उद्देश्य से काफी जंगली क्षेत्र में विचरण किया लेकिन, कभी कुछ भी मिला नहीं। बाद में पता चला कि किसी भी सिद्ध क्षेत्र में प्रवेश से पहले कुछ प्रक्रियाओं को करना अनिवार्य रहता है, क्योंकि सिद्धों की साधना पीठ तथा उनके सिद्ध क्षेत्र तंत्र क्रियाओं से आबद्ध होते हैं। इससे होता ये है कि अगर कोई व्यक्ति उस क्षेत्र में प्रवेश करे उससे पहले ही उसका मानस परावर्तित हो जाता है या उच्चाटित हो जाता है । जिससे कि वह विपरीत दिशा में वापस चला जाता है या फिर उस क्षेत्र में प्रवेश करने की इच्छा ही मानसिक रूप से समाप्त हो जाती है।
खैर, उस समय इन प्रक्रियाओं का ज्ञान नहीं था, लेकिन प्रवेश से पहले तथा खोज के समय भी मैं अज्ञात सिद्धों से प्रार्थना करता रहता था कि वे मुझे दर्शन दें तथा सिद्ध पीठ मेरे सामने आये। और इसी प्रार्थना के साथ बिना दिशा निर्धारित किये और, न ही कोई आधारतथ्य को ध्यान में ले कर बस, किसी भी दिशा में चलता रहता, जहां पर जंगली जानवरों का खतरा जितना भी हो सके अल्प हो और प्रार्थना करता रहता।
लेकिन कई दिनों तक भी ऐसा संभव नहीं हुआ तब हताश हो कर एक दिन क्षमा याचना कर अपनी खोज समाप्त करने का निश्चय किया। उसी दिन रात्रि काल में शरीर अचानक से तन्द्रा अवस्था को प्राप्त हुआ तथा बेहोशी छाने लगी। आंखों के सामने एक सफ़ेद वस्त्र धारी महात्मा प्रकट हो गये। उनके बाल तथा दाढ़ी अत्यधिक लंबे थे, चेहरा पूर्ण गौर वर्ण का था, आयु का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता था। निश्चित ही वे कोई बहुत बड़े सिद्ध थे....
(क्रमशः)
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