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Writer's pictureRajeev Sharma

स्वःलोक - सिद्धात्मा द्वारा संशय निवारण-2

Updated: Sep 3, 2023

आवाहन भाग - 26

गतांक से आगे...


सिद्धयोगी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, "जैसा कि मैं कह चुका हूं, उनके मूल शरीर में वापस आते ही उनमें पूर्व बोध और संस्कार कुछ अंश में वापस आ जाते हैं। चूंकि इन योनियों की भोग प्रवृति ज्यादा होती है अतः ये किसी भी जीव को अपने भोग से संबंधित इच्छाओं और तृष्णाओं के लिए वचनबद्ध कर लेती हैं, इसके बाद उनसे कई प्रकार के उपभोग ये प्राप्त कर लेती हैं। मूल बात ये है कि ये योनियां भी अपनी सिद्धियों का इस्तेमाल मूल रूप से व्यक्ति की विरोध-इच्छा पर नहीं कर सकती हैं, इस लिए जरूरी यह होता है कि वह सामने वाले व्यक्ति को किसी न किसी रूप में ऋणी बना कर बाध्य कर लें।


इसीलिए कई बार ये योनियां सामने वाले जीव से वचन ले लेते हैं, वचनबद्ध हो जाने पर जीव के लिए कार्मिक नियमों के अनुसार यह आवश्यक हो जाता है कि वह वचन का पालन करे और, अगर व्यक्ति अपने वचन का पालन नहीं करता है तो तब ये योनियां अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर सकती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यक्ति कर्मों के सिद्धांत के अनुसार वचनबद्ध हो चुका होता है, ऐसी स्थिति में वह श्राप देने से भी नहीं चूकते।


अगर तुम उस समय वचनबद्ध हो गए होते तो तुम्हारे लिए यह जरूरी था कि वह जो भी इच्छा प्रकट करे, उसकी पूर्ति करो। इनकी इच्छा भोगजन्य होती है लेकिन तंत्र साधकों की इच्छाओं के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, ऐसा भी हो सकता था कि वह तुम्हारे पास से कोई साधना मांग ले या ऐसा भी कि तुम्हारे पास से वह तुम्हारी साधनात्मक ऊर्जा को मांग ले जो सिंचित की गई है। ऐसी स्थिति में वह सारी ऊर्जा को साधक से खींच कर अपने पास लेने से नहीं कतराते और, असीम सिद्धियों के स्वामी बन जाते है । हालाँकि इसका परिणाम भयंकर ही होता है लेकिन सिद्धि के मद और लालच में ऐसी भयंकर भूल होती हैं, साथ ही साथ अगर तुम ऐसा नहीं करते तो तुम श्राप के हकदार होते, इसीलिए तुम्हारा अनुभव उसी समय समाप्त कर दिया गया था।


साधकों को हमेशा वचन देने में ध्यान रखना चाहिए, सत्य का उच्चारण और उसी के अनुरूप साधक का आचरण हो, ये जरूरी है। 


साधक अपने ह्रदय में जितना भी दूषित और मलेच्छ रहता है, उतना ही उसकी श्राप बद्ध होने की संभावना बढ़ जाती है और ऐसी स्थिति में साधक के ऊपर विभिन्न प्रकार की इतरयोनी हावी रहती हैं और, अनिष्ट की संभावना बढ़ती है। ये साधक के साधनात्मक जीवन की बात है इसे भौतिकता से नहीं जोड़ा जाता।


मैंने कहा कि, इतरलोक के सबंध में, एक साधक को इसके अलावा और कौन-कौन सी ऐसी बातें हैं जिसका ख्याल रखना चाहिए । सिद्ध ने मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा, "जैसा कि तुम्हें कहा जा चुका है, देव योनि साधक के आंतरिक स्तर मात्र को देख कर उसकी तरफ आकर्षित होती है, साधक का चित जितना विशुद्ध होगा, साधक के लिए देव योनि से संपर्क स्थापित करने में उतना ही सफलता प्राप्त करना आसान हो पाएगा


इसके लिए एक तांत्रिक मंत्र है जो कि महासिद्ध गोरखनाथ प्रणीत है, इस मंत्र का जाप अगर साधक रात्रि काल में १० बजे के बाद या ब्रह्म मुहूर्त में एक माला नित्य करे तो उसमें इस प्रकार का परिवर्तन आने लगता है। साधना काल में दिशा उत्तर रहे तथा साधक के वस्त्र और आसान कोई भी हो सकते हैं, साधक किसी भी माला से इसका जाप कर सकता है,


।। ॐ नमो नारायणाय सिद्ध गुरु को आदेश आदेश आदेश ।।


इस में दिन की संख्या नहीं है, साधक को इसे करते रहना चाहिए और अगर साधक इसे नियमित नहीं रख सके तो भी कोई दोष नहीं लगता, इस प्रकार योग तंत्र जगत में नए साधकों के लिए यह मन्त्र वरदान का काम करता है।

इसके अलावा एक तंत्र साधक को अपने मन में चल रहे विचारों पर हमेशा ये ध्यान रखना चाहिए कि उसका यह विचार उसको क्या नूतन ज्ञान दे सकता है। इस प्रकार साधक का चिंतन सदैव ही साधनामय बना रहता है और जितना ही साधक का चिंतन साधनामय बना रहेगा, साधक को साधना की प्रक्रिया के लिए भी उतनी ही मजबूत पृष्ठभूमि प्राप्त होगी।


कई बार साधक साधना नहीं कर पाते है लेकिन उनका चिंतन बराबर साधनात्मक ही रहता है, ऐसी स्थिति में अगर वो शुद्ध भाव से, ज्ञान तत्व तथा गुरु तत्व के प्राप्ति के लिए साधनात्मक चिंतन भी करता है तो स्वः लोक के सिद्ध उसको साधना की प्रक्रिया की और गतिशील करने के लिए तैयार करते हैं। 


साधक को लगेगा कि स्वतः ही ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो गया है कि उसको साधना की प्रक्रिया करने के लिए एक सुविधापूर्ण माहौल मिल गया है लेकिन इसके मूल में दिव्य सिद्ध होते हैं।

इस लिए जो मन से साधना करना चाहता हो, उसे किसी न किसी रूप में एक समय पर मौका मिल ही जाता है। अतः निराश होने का कोई कारण नहीं है। वैसे भी अगर साधक सही में साधक ही है तो उसके मूल तत्व की खोज के लिए उसका अंतर्मन उसे हमेशा आकर्षित करता ही रहेगा।


मैंने पूछा कि साधकों के मन में यह जिज्ञासा बराबर रहती है कि उसे साधना के किस क्षेत्र की ओर अग्रसर होना चाहिए जिससे उसे त्वरित सफलता मिले। महासिद्ध ने इस प्रश्न का जो उत्तर दिया, उसे सुन कर मन को एक नूतन ही बोध मिला...


(क्रमशः)

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