आवाहन भाग - 28
गतांक से आगे...
प्रकाशपुंज स्वरूप दिव्य महासिद्ध से मेरा अगला प्रश्न यह था कि एक शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण किस प्रकार से बढ़ता है? जिसके उत्तर में, मुझे महासिद्ध ने कहा, "शिष्य जब समर्पित होने लगता है तब उसका अनंत मन वाह्य रूप से नयी चेतना को स्वीकार करने में सक्षम हो जाता है और, जब ऐसा होता है तो गुरु अपनी प्राणश्चेतना को उसकी चेतना से जोड़ सकते हैं । इस क्रिया के माध्यम से साधक अपने आप को सीधे ही सिद्ध गुरु से जोड़ लेता है। वस्तुतः एक स्थिति ऐसी भी आती है जब उसे अपने अंदर तथा वाह्य रूप में सभी जगह पर अपने सिद्धगुरु ही दृष्टिगोचर होते हैं।"
ऐसी स्थिति आने पर साधक में वह ज्ञान अपने आप ही विकसित होने लगता है जो वो प्राप्त करना चाहता है। अपने गुरु की ज्ञान चेतना के साथ वह साधक सीधे ही जुड़ जाता है। इस लिए वह सर्व तथ्यों में ज्ञान सार को प्राप्त कर ही लेता है।
यह शिष्य के जीवन की एक अमूल्य उपलब्धि होती है।
साधक को इसके लिए सदैव प्रयत्नशील रहना पड़ता है। साधक अपने समर्पण भाव को विकसित करने के लिए सद्गुरु के द्वारा प्रदत्त तत्पुरुष मंत्र का विधि विधान के साथ जाप करे। इस प्रकार के मंत्रों की रचना सिद्धगुरु स्वयं ही अपनी प्राण ऊर्जा से करते है, जो कि सिर्फ उनकी प्राण ऊर्जा से संबंधित रहता है। ऐसा मंत्र निश्चित रूप से हर एक साधक को सिद्धि के द्वार पर लेकर जा सकता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि सिद्धगुरु अपनी ही चेतना और प्राण के माध्यम से साधक को मनोभिलाषित सिद्धि प्रदान कर सकते है. और इसके लिए जो समर्पण भाव की आपूर्ति होती है उमसे यह मंत्र पूरक बन जाता है।
निखिल तत्पुरुष साधना पर एक पूरा लेख शीघ्र ही प्रकाशित किया जाएगा ।
इसके साथ ही साथ साधक को गुरु प्राणश्चेतना मंत्र का जाप करते रहना चाहिए । इस मंत्र को भी आगे आने वाले लेखों में शीघ्र ही प्रकाशित किया जाएगा ।
यही वो मंत्र हैं जिनके माध्यम से साधक तथा गुरु के प्राण एवं चेतना जुड़ सकें तथा, साधक शीघ्र से अपने लक्ष्य की प्राप्ति को सुनिश्चित कर ले।
साधना सफलता के मूल तथ्य ये हैं कि जब गुरु को अपने ह्रदय में स्थान दे कर उनसे जुड़ाव सुनिश्चित कर लिया गया है तो फिर साधना तथा सिद्धि मिलना किसी भी प्रकार से दुष्कर नहीं रह जाता है। जब ऐसी स्थिति आती है तब साधक के आंतरिक ब्रह्माण्ड का जुड़ाव वाह्यब्रह्माण्ड से हो जाता है। वस्तुतः वाह्य ब्रह्माण्ड अनंत है ठीक उसी प्रकार, आतंरिक ब्रह्माण्ड भी अनंत है। आंतरिक ब्रह्माण्ड का आधार मन होता है क्योंकि मन हमारे अंदर का ऐसा स्थल है जो कि अनंत है, इसीलिए इसी धरातल पर आतंरिक ब्रह्माण्ड जुड़ा हुआ है।
मन के क्रिया कलाप बोध के माध्यम से होते है और बोध का ज्ञान हमें चेतना देती है। इस प्रकार जब यह शृंखला पूर्ण होती है तब साधक जिस किसी भी तथ्य का वाह्य रूप में अवलोकन करता है वही उसे आंतरिक रूप से भी दृष्टिगोचर होता है और जो आंतरिक रुप से अवलोकन होता है वही वाह्य रूप से अनुभूत होता है।
ऐसी स्थिति में प्रकृति की नित्य सत्ता ब्रह्म का अनुभव उसे आंतरिक तथा वाह्य दोनों रूप से होने लगता है। जब ऐसा होता है तब साधक इसी परब्रह्म का एक अटूट भाग बन जाता है क्योंकि जहां आंतरिक और वाह्य रूप से एक ही तथ्य शाश्वत होता है वहां पर विच्छेद नहीं हो सकता। यही वह स्थिति है जो सर्वश्रेष्ठ होती है और यही वह स्थिति है जिसे “अहं ब्रह्मास्मि” कहा गया है जो कि हर एक साधक का न सिर्फ समझना बल्कि उसे महसूस करना भी लक्ष्य होता है।
मैं सोच में पड़ गया कि किस प्रकार एक सामान्य साधक प्रकृति नियंत्रण की सत्ता ‘ब्रह्म’ बन जाता है। इस विस्मय कारक और आश्चर्यजनक तथ्यों को सुन कर मेरे मन से सारे प्रश्न हवा बन कर उड़ गए।
एक नूतन ही ज्ञान और नूतन ही चेतना की आभास हो रहा था।
मैंने महासिद्ध की तरफ कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए प्रणाम किया तब, मुझे महसूस हुआ कि मेरे पास कोई और भी है। सर उठा कर देखा तो एक सन्यासी खड़े थे जो मेरी तरह ही प्रकाशपुंज को श्रद्धा के साथ नमस्कार कर रहे थे।
सन्यासी मेरी तरफ देख कर मुसकुराए और फिर से प्रकाशपुंज स्वरूप उन दिव्य महासिद्ध को प्रणाम करने लगे। मेरे मन में कोई प्रश्न नहीं था शायद इसी भाव के कारण वह दिव्य महासिद्ध का प्रकाशपुंज धीरे-धीरे छोटा होता गया और, मुट्ठी जितना होने के बाद एक क्षण के लिए इतना प्रकाश हुआ कि उस रोशनी में कुछ दिखाई ना दे।
अगले ही क्षण उस जगह पर वह प्रकाशपुंज नहीं थे।
दिव्य महासिद्ध जिन्होंने मुझे इतना ज्ञान प्रदान किया था वे चले गए थे । शायद मेरी ही तरह कोई और अबोध भी अपने प्रश्नों के साथ खड़ा होगा इस आस में कि उसे उत्तर मिल जाए। कितना कीमती होता है सिद्धयोगियों का एक एक क्षण। ना जाने कितनी ही दिव्य घटनाओं के ये गुप्त प्रेरक होते होंगे।
सच ही तो है, हर एक क्षण में नवीन बोध है, नवीन ज्ञान है, और जीवन की हर एक घटना किसी नूतन ज्ञान को आमंत्रित करने के लिए ही होती है।
यही सब सोच रहा था कि मेरे पास वाले सन्यासी की तरफ मेरी नज़र पड़ी, वो वहीं पर खड़े थे और मेरी तरफ देख कर किंचित व्यंग से मुसकुराए । मैंने प्रश्न सूचक दृष्टि से उनकी तरफ देखा - उन्होंने हंसते हुए कहा, "क्या तुम जानते हो कि वो महासिद्ध कौन थे?"
नहीं जानता, थोड़े खेद के साथ जवाब दिया मैंने।
सन्यासी के चेहरे पर अभी भी वही रहस्य और व्यंग वाली मुस्कान थी। वह मुड़े और चलने लगे, जाते जाते उनके शब्द मुझे सुनाई दिए “अपने मूल को भी नहीं पहचान पाए?”
और कुछ क्षण में ही वो सन्यासी आंखों से ओझल हो गए। भाव विहीन सा हो गया सन्यासी के आखिरी शब्द सुन कर। शुभ्र प्रकाश चारों तरफ बिखरा हुआ था, और मैं अभी भी उसी जगह खड़ा हुआ था।
वो दिव्य प्रकाशपुंज महासिद्ध और कोई नहीं सदगुरुदेव ही थे...
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