आवाहन - भाग 9
गतांक से आगे...
संन्यासी ने अपने कारण शरीर का निर्माण कर लिया था, लेकिन इसके साथ ही योगिनी का तारक तंत्र का प्रयोग भी हो चुका था । सूक्ष्म शरीर में प्राण ऊर्जा तो थी लेकिन, आत्म तत्व अब कारण शरीर में था…।
स्थूल शरीर तो शवासन में ही पड़ा हुआ था जिसकी रजतरज्जू से संन्यासी का सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर जुड़ा हुआ था। स्थूल शरीर में प्राण ऊर्जा थी जो कि संन्यासी के स्थूल शरीर को सदियों तक बिना आत्मा के जीवित रख सकती थी, और सूक्ष्म शरीर, में भी प्राण ऊर्जा थी ही, लेकिन योगिनी के प्रयोग के कारण सूक्ष्म शरीर निष्क्रिय होते हुए भी स्थूल शरीर में समा रहा था…।
संन्यासी अपने कारण शरीर के माध्यम से अपने दोनों शरीर की गतिविधियों को देख रहा था, सूक्ष्म शरीर अब स्थूल शरीर में समा चुका था लेकिन आत्म तत्व सिर्फ कारण शरीर में होने से, संन्यासी अपने कारण शरीर में थे जब कि उनका सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर योगिनी के द्वारा किये गए तारक तन्त्र प्रयोग से प्राण संकलन होकर एक हो चुका था ।
अब उनका सूक्ष्म शरीर वापस स्थूल शरीर में समाहित हो चुका था, लेकिन प्रयोग का असर सूक्ष्म शरीर को किसी भी तरह से स्थूल शरीर में समाहित करने के साथ साथ बाहरी ब्रह्मांड से संपर्क काटने का भी था। अब इस क्रिया का प्रभाव ये हुआ कि, सूक्ष्म और स्थूल शरीर समाहित होते ही, योगिनी द्वारा प्रणीत तारक तन्त्र के प्रभाव से संन्यासी की रजतरज्जू टूट गई। अब उनके कारण शरीर से उनके स्थूल शरीर का सम्बन्ध विच्छेद हो गया। अब संन्यासी की स्थिति यह हो गयी थी कि वो खुद चाह कर भी अपने स्थूल शरीर में नहीं जा सकते थे।
अब संभावना ये भी हो गयी कि अब अनंत काल तक उन्हें अपने कारण शरीर में ही रहना पड़े। रजतरज्जू ही वह भाग होता है जो हमारे आंतरिक शरीरों को जोड़ता है, उसके टूटने का मतलब है कि संन्यासी का अब उसके स्थूल या सूक्ष्म शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है और, अब वो उस शरीर में लौट ही नहीं सकता है।
योगिनी भी विस्मित थी, उसने ये नहीं सोचा था कि उसके प्रयोग से इस प्रकार की दुर्घटना हो जाएगी। अपनी साधना पूरी करने के लिए तो उसने अब तक सन्यासी के नाम का संकल्प भी ले लिया था…..
लेकिन संन्यासी तो अब अपने कारण शरीर में था जिस पर कीलन या स्तम्भन का असर नहीं होता है।
इधर, संन्यासी ने अपने स्थूल शरीर पर हुये स्तम्भन और कीलन को निष्क्रिय करने का प्रयोग अपने कारण शरीर से ही शुरू कर दिया था। थोड़ी देर में ही, संन्यासी ने अपने कारण शरीर के माध्यम से स्तम्भन और कीलन प्रयोग संपन्न कर लिया जिससे अब उसके स्थूल शरीर पर कीलन व स्तम्भन का कोई असर नहीं होने वाला था ।
योगिनी को अब संन्यासी के साथ ही अपनी तन्त्र साधना पूरी करनी पड़ेगी, क्योंकि उसने संन्यासी के नाम का संकल्प ले लिया था। अगर वो संन्यासी के साथ साधना नहीं करती तो उसकी साधना अपूर्ण और भंग मानी जाएगी, ये भी हो सकता है कि इसके लिए उसे मृत्यु का भी वरण करना पड़े ।
संन्यासी ने अपने कारण शरीर के माध्यम से कीलन और स्तम्भन प्रयोग को निष्क्रिय कर दिया था । अब किसी भी तरह उनका रजतरज्जू जुड़ जाए तो वो अपने स्थूल शरीर में प्रवेश कर के योगिनी के माया चक्र से बाहर निकल सकते हैं।
योगिनी अब संन्यासी के शरीर का स्पर्श नहीं कर सकती थी, क्योंकि साधना जगत में अगर किसी व्यक्ति का रजतरज्जू टूट जाए और शरीर में प्राण ऊर्जा हो तो, कोई भी स्त्री अगर, उस शरीर को स्पर्श करे तो स्त्री के ऋण आयाम रजतरज्जू को खींच के शरीर के धन आयाम के साथ जोड़ देता है।
अगर योगिनी ऐसा करती है तो संन्यासी के किये गए प्रयोग से कीलन और स्तम्भन का प्रयोग निष्क्रिय हो जाएगा और संन्यासी आसानी से उस कस्बे के बाहर चला जाएगा…
(क्रमशः)
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